
आहोर/जालोर। राजस्थान की धरती ने ऐसे रणबांकुरे पैदा किए हैं, जिनकी गाथाएं आज भी इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में दर्ज हैं। उनमें से एक हैं मेजर दलपत सिंह शेखावत, जिन्हें पूरी दुनिया “हाइफ़ा का हीरो” कहकर याद करती है। जोधपुर की देवली गांव की मिट्टी में जन्मे इस शेर ने प्रथम विश्व युद्ध (1918) में तलवार और भालों से लैस घुड़सवार टुकड़ी के साथ दुश्मन की तोपों और मशीनगनों के सामने सीना तानकर ऐसा इतिहास रचा, जो दुनिया में बेमिसाल है।
शुरुआत और सेना में कदम
मेजर दलपत सिंह का जन्म वर्तमान पाली जिले के देवली गांव में रावणा राजपूत परिवार में हुआ। महज 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने जोधपुर लांसर्स में भर्ती होकर सैनिक जीवन शुरू किया। उनकी बहादुरी, नेतृत्व और रणनीति ने उन्हें सेना में खास पहचान दिलाई।
23 सितंबर 1918: हाइफ़ा की निर्णायक लड़ाई
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों ने जोधपुर रियासत की सेना को तुर्की-जर्मन सेना के कब्जे से हाइफ़ा शहर को मुक्त कराने का आदेश दिया।
- दुश्मन आधुनिक हथियारों से लैस था — मशीनगन और तोपों से सुसज्जित।
- दूसरी ओर, राजपूताना की सेना घोड़ों पर सवार होकर सिर्फ तलवार और भालों से युद्ध करने आई थी।
अंग्रेजों ने हालात देखकर सेना को पीछे लौटने का आदेश दिया। लेकिन तब सेनापति मेजर दलपत सिंह ने दो टूक कहा –
“हमारे यहाँ पीछे हटने की कोई परंपरा नहीं है। रणभूमि में उतरने के बाद या तो जीतते हैं या वीरगति को प्राप्त होते हैं।”
यही वो क्षण था, जिसने इतिहास बदल दिया।
युद्ध की अनोखी रणनीति
सीधे मोर्चे पर हमला असंभव था। दलपत सिंह ने अपनी टुकड़ी को पहाड़ियों के पीछे से दुश्मन पर चढ़ाई का आदेश दिया।
- तलवार और भाले लिए घुड़सवारों ने दुश्मन की तोपों और मशीनगनों का सामना किया।
- यह इतिहास का अकेला युद्ध था, जिसमें तलवारें और बंदूकें आमने-सामने भिड़ीं।
करीब 900 राजपूत सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए, लेकिन अंततः विजयश्री राजपूताना लांसर्स को मिली। हाइफ़ा शहर आज़ाद हो गया और 400 साल पुराने ओटोमन साम्राज्य का अंत हो गया।
शहादत और सम्मान
इस लड़ाई में मेजर दलपत सिंह गंभीर रूप से घायल हुए और विजय के उसी दिन वीरगति को प्राप्त हुए।
- उनकी वीरता के लिए उन्हें मरणोपरांत मिलिट्री क्रॉस से सम्मानित किया गया।
- दिल्ली के त्रिमूर्ति भवन पर उनकी मूर्ति और हाइफ़ा (इज़राइल) में बना स्मारक आज भी उनकी गाथा सुनाते हैं।
- इज़राइल हर साल 23 सितंबर को “हाइफ़ा दिवस” मनाकर उन्हें श्रद्धांजलि देता है।
हाइफ़ा में भारतीय सैनिकों की भूमिका
इस युद्ध में भारत की तरफ से हैदराबाद, मैसूर और मारवाड़ रियासत की सेनाएं शामिल हुईं। लेकिन नेतृत्व की जिम्मेदारी थी राजपूताने के शेर मेजर दलपत सिंह के कंधों पर।
2018 में, युद्ध के 100 वर्ष पूरे होने पर जर्मन सरकार ने उनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया।
वीरता की अमर यादें
ब्रिटिश सेना के कमांडर-इन-चीफ़ उनकी शहादत और बहादुरी से इतने प्रभावित हुए कि दिल्ली में अपने लिए बनाए गए फ़्लैग स्टाफ़ हाउस के चौराहे पर तीन सैनिकों की मूर्तियां स्थापित करवाईं। यह स्मारक आज भी रणबांका राठौड़ों की शौर्य गाथा की याद दिलाता है।

श्रवण कुमार ओड़ जालोर जिले के सक्रिय पत्रकार और सामाजिक विषयों पर लिखने वाले लेखक हैं। वे “जालोर न्यूज़” के माध्यम से जनहित, संस्कृति और स्थानीय मुद्दों को उजागर करते हैं। उनकी पत्रकारिता का उद्देश्य है—सच दिखाना और समाज की आवाज़ बनना।