Reporter Shravan Kumar Od Jalore
जयपुर ( 18 सितंबर 2025 ) Rajasthan Politics: राज्य में भाजपा सरकार के मौजूदा कार्यकाल में अब तक मात्र 9 बोर्ड-आयोगों में ही राजनीतिक नियुक्ति हो सकी हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी को राज्य वित्त आयोग का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद कुछ और ऐसी ही नियुक्तियां होने की चर्चा चली थी, पर यह फिर भविष्य के अंधेरे में गुम हो गई है।
राजस्थान में वरिष्ठ नेताओं को राजनीतिक नियुक्तियों के जरिए एडजस्ट करना लंबे समय से प्रस्तावित है। इनमें कुछ ऐसे थे, जो विधानसभा चुनाव हारे थे और कुछ ऐसे थे, जिनको टिकट नहीं मिला था। विपक्ष के खिलाफ बड़े नेताओं को खड़े करने के पीछे आलाकमान का उद्देश्य था, लेकिन फिलहाल पूरा मामला अटक गया है।
ये नेता नियुक्तियों की दौड़ में
जन अभाव अभियोग निराकरण समिति, हाउसिंग बोर्ड व आरटीडीसी अध्यक्ष, बीस सूत्री कार्यक्रम उपाध्यक्ष, महिला आयोग की अध्यक्ष सहित अन्य महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियां होनी है। इन पदों के लिए पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी, सतीश पूनिया, पूर्व नेता प्रतिपक्ष राजेन्द्र राठौड़, पूर्व राज्यसभा सांसद नारायण पंचारिया, कांग्रेस से भाजपा में आए महेन्द्रजीत सिंह मालवीया, सुमन शर्मा, पूजा कपिल मिश्रा के नाम चर्चाओं में है। सतीश पूनिया का नाम राष्ट्रीय संगठन के लिए भी चल रहा है।
केवल अब तक 9 नियुक्तियां
राज्य में अब तक 9 बोर्ड-आयोगों में नियुक्तियां हो चुकी है। देवनारायण बोर्ड, राजस्थान राज्य अनुसूचित जाति वित्त विकास आयोग, माटी कला बोर्ड, किसान आयोग, राज्य जीव जंतु कल्याण बोर्ड, धरोहर संरक्षण एवं प्रोन्नति प्राधिकरण, सैनिक कल्याण बोर्ड और राज्य वित्त आयोग में सरकार अध्यक्ष की नियुक्ति कर चुकी है। प्रदेश में वर्तमान में 60 से ज्यादा बोर्ड-आयोग अस्तित्व में हैं।
कई पदों की नियुक्तियों में मंत्री पद का दर्जा मिलता है
सूबे में भजनलाल सरकार को बने करीब पौने दो साल होने आए हैं. लेकिन अभी राजनीतिक नियुक्तियों ने रफ्तार नहीं पकड़ी है. हालांकि राठौड़ ने कहा कि जैसे-जैसे पद खाली हो रहे हैं वैसे-वैसे भरे जा रहे हैं. कोई यह नहीं कह सकता कि नियुक्तियां नहीं हो रही है. इसके लिए उन्होंने आरपीएससी और किसान आयोग का उदाहरण देते हुए कहा कि नियुक्तियां हो रही हैं. लेकिन प्रदेशभर में राज्य और जिला स्तर पर अभी बहुत सी राजनीतिक निुयक्तियां होनी बाकी है. इनमें विभिन्न आयोग, बोर्ड और बीस सूत्री कार्यक्रम के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्यों के रूप में कई तरह नियुक्तियां होनी है. इनमें कई नियुक्तियों में स्टेट और कैबिनेट मंत्री तक का दर्जा भी मिलता है. इसके साथ वो तमाम सुविधाएं मिलती है जो राज्य या कैबिनेट मंत्री को मिलती हैं.
पूर्ववर्ती गहलोत सरकार के समय भी बहुत देरी से मिली थी नियुक्तियां
पूर्ववर्ती गहलोत सरकार में भी कार्यकर्ता तीन साल से ज्यादा समय तक राजनीतिक नियुक्तियों का इंतजार करते रहे थे. लेकिन उनको ये नियुक्तियां गहलोत सरकार कार्यकाल खत्म होने से कुछ समय पहले ही मिल पाई. नियुक्तियां नहीं होने के पीछे गहलोत सरकार और कांग्रेस संगठन कई तरह के तर्क देते रहे थे. उस समय सबसे बड़ा झमेला गहलोत और पायलट के खेमों का संतुलन बनाने का था. राजनीतिक नियुक्तियों में भी पार्टियां योग्यता की बजाय वोट बैंक और सोशल इंजनीनियरिंग को ज्यादा तवज्जो देती है. इसके साथ ही ये राजनीतिक नियुक्तियां चुनाव से पहले रूठे नेताओं और कार्यकर्ताओं को मनाने के लिए में भी ली जाती है.
क्या कहता है डेटा: साल-दर-साल की नियुक्तियों की कहानी
वर्ष मुख्यमंत्री पार्टी नियुक्तियां शुरू कब हुईं कुल औसत नियुक्तियां देरी के कारण
- 2003 वसुंधरा राजे भाजपा 12 माह बाद (2004 अंत) 60 संघ-राजे तनाव, संतुलन की कोशिश
- 2008 अशोक गहलोत कांग्रेस 24 माह बाद (जनवरी 2011) 30 गुटबाजी, हाईकमान की हिचक
2013 वसुंधरा राजे भाजपा 18 माह बाद (जुलाई 2015) 70 केंद्र दखल, संगठन असंतुलन
2018 अशोक गहलोत कांग्रेस 16 माह बाद (अप्रैल 2020) 128 गहलोत-पायलट संघर्ष, कोविड प्रभाव
2023 भजनलाल शर्मा भाजपा लंबित (जून 2025 तक) 22 (अब तक) संघ समन्वय, दिल्ली से स्वीकृति की देरी
मुख्य कारण जो नियुक्तियों को बनाते हैं धीमा
1. गुटबाजी और संतुलन की मुश्किल:
हर पार्टी में खेमे होते हैं। एक गुट को नियुक्ति दी, तो दूसरा नाराज। लिहाजा टालना ही आसान रास्ता बन जाता है।
2. हाईकमान की हरी झंडी:
भाजपा में दिल्ली का दखल ज्यादा होता है, वहीं कांग्रेस में भी सोनिया-राहुल से मंजूरी का इंतजार होता है। फाइलें बिना अनुमति आगे नहीं बढ़तीं।
3. नई सरकार की प्राथमिकताएं:
प्रारंभिक महीनों में बजट, प्रशासनिक संतुलन, लॉ एंड ऑर्डर जैसे मुद्दे हावी रहते हैं। इस फेर में राजनीतिक नियुक्तियां पीछे रह जाती हैं।
4. अफसरशाही का टालू रवैया:
फाइलों की चक्करखोरी, अनुमोदन प्रक्रिया में विलंब और सचिवालय की निष्क्रियता भी बड़ी वजह बनती है।
लाइजनिंग और सेटिंग: नई राजनीति का अनकहा सच
एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि अब नियुक्तियां सिर्फ मेहनत या निष्ठा से नहीं, बल्कि “लाइजनिंग और सेटिंग” के दम पर होती हैं। हर नियुक्ति अब सियासी गणित का हिस्सा होती है—किसे साधना है, किस गुट को खुश करना है, किससे दबाव है। नतीजा, ज़मीन पर काम करने वाले कार्यकर्ता बस इंतजार करते रह जाते हैं।
विश्लेषण: कांग्रेस बनाम भाजपा – कौन कितना अलग?
पूर्व कांग्रेस प्रवक्ता सतेंद्र राघव का कहना है कि कांग्रेस में नियुक्तियों को लेकर सिंगल टू विंडो सिस्टम काम करता है, जहां मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष की सीधी भूमिका होती है। वहीं भाजपा में नियुक्ति की प्रक्रिया बहुस्तरीय और जटिल है। इसमें संघ, केंद्रीय नेतृत्व, प्रदेश संगठन और मुख्यमंत्री—सभी की भूमिका होती है। यही वजह है कि भाजपा में नियुक्तियों को लेकर फ़ैसले लंबा समय लेते हैं और कई बार कार्यकर्ता थक-हारकर दूर हो जाते हैं।
क्या हो सकता है हल?
राजनीतिक विश्लेषकों की राय में दोनों ही प्रमुख पार्टियों को कार्यकर्ताओं के लिए स्पष्ट और पारदर्शी नियुक्ति नीति बनानी चाहिए। यदि पदों की संख्या सीमित भी हो, तब भी चरणबद्ध तरीके से नियुक्तियों की समय-सीमा तय की जाए। इससे कार्यकर्ताओं में भरोसा बना रहेगा और संगठन की शक्ति भी मजबूत होगी।
आखिर सवाल यह है…
जब हर चुनाव में कार्यकर्ताओं की मेहनत से ही सरकारें बनती हैं, तो सत्ता में आने के बाद वही कार्यकर्ता उपेक्षित क्यों हो जाते हैं? क्यों नियुक्तियों की प्रक्रिया बार-बार लंबित रहती है? और कब तक यह “पहले सत्ता, फिर संतुलन, तब कहीं नियुक्ति” वाला मॉडल चलता रहेगा?
यदि राजनीतिक दल इस ‘देरी के ढर्रे’ को नहीं तोड़ते, तो आने वाले चुनावों में यह कार्यकर्ताओं की निष्ठा और मनोबल दोनों को कमजोर कर सकता है। सत्ता पाने के लिए जिन कंधों का सहारा लिया जाता है, यदि वही कंधे कमजोर हो जाएं तो सत्ता की नींव भी हिल सकती है।

श्रवण कुमार ओड़ जालोर जिले के सक्रिय पत्रकार और सामाजिक विषयों पर लिखने वाले लेखक हैं। वे “जालोर न्यूज़” के माध्यम से जनहित, संस्कृति और स्थानीय मुद्दों को उजागर करते हैं। उनकी पत्रकारिता का उद्देश्य है—सच दिखाना और समाज की आवाज़ बनना।