
भीनमाल (माणकमल भंडारी)।
इस मंगलवार को पूरे क्षेत्र में सामवेदी श्रावणी उपाकर्म मनाया जाएगा। यह पर्व ब्राह्मणों के लिए सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठानों में से एक माना जाता है। शास्त्री प्रवीण त्रिवेदी ने बताया कि यह उपाकर्म तब मनाया जाता है जब सिंह राशि में सूर्य हो और अपराह्न काल में हस्त नक्षत्र आए।
उन्होंने समझाया कि जैसे क्षत्रियों के लिए विजयदशमी और वैश्यों के लिए दीपावली का विशेष महत्व है, वैसे ही ब्राह्मणों के लिए सामवेदी उपाकर्म का महत्व होता है। यह पर्व सिर्फ परंपरा ही नहीं बल्कि आत्मशुद्धि और सकारात्मक जीवन की दिशा में उठाया गया कदम माना जाता है।
क्यों किया जाता है उपाकर्म?
त्रिवेदी ने बताया कि उपाकर्म का सीधा अर्थ है – प्रारंभ करना। यह वह काल होता है जब विद्यार्थी अपने गुरु के पास वेदों के अध्ययन के लिए एकत्रित होते थे। धर्मग्रंथों के अनुसार, जब वनस्पतियां धरती पर अंकुरित होती हैं, उसी समय हस्त नक्षत्र में यह अनुष्ठान आयोजित किया जाता है।
प्राचीन काल में इसका सत्र माघ शुक्ल प्रतिपदा या पौष पूर्णिमा तक चलता था।
उपाकर्म को तीन हिस्सों में बांटा गया है –
- प्रायश्चित्त संकल्प
- संस्कार
- स्वाध्याय
प्रायश्चित्त संकल्प – पापों से मुक्ति
सबसे पहले हेमाद्रि स्नान किया जाता है। इसमें ब्रह्मचारी और द्विज लोग गोदुग्ध, दही, घृत, गोबर, गोमूत्र और पवित्र कुशा से स्नान करते हैं।
इसका उद्देश्य है – पूरे साल में जाने-अनजाने हुए पापों का प्रायश्चित्त कर जीवन को सकारात्मकता से भरना।
संस्कार – नया यज्ञोपवीत धारण
इस दिन ब्राह्मण मध्याह्न संध्या, सामवेद पाठ, ब्रह्म यज्ञ, देव-पितृ-मनुष्य तर्पण, विष्णु तर्पण और सूर्योपस्थान करते हैं।
इसके बाद सप्तऋषि, अरुंधति और गोभिलाचार्य की पूजा होती है।
मुख्य परंपरा है – नवीन यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करना।
जिनका यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका होता है, वे इस दिन पुराना जनेऊ उतारकर नया धारण करते हैं। पुराने जनेऊ का विधिवत पूजन भी किया जाता है।
त्रिवेदी ने कहा कि जनेऊ आत्मसंयम और अनुशासन का प्रतीक है।
स्वाध्याय – वेद अध्ययन का प्रारंभ
उपाकर्म का तीसरा और सबसे गहरा पक्ष है – स्वाध्याय।
इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदा-स्पति, अनुमति, छंद और ऋषियों को घृत आहुति देकर की जाती है।
इसके बाद जौ के आटे और दही से बने मिश्रण में मंत्रोच्चार के साथ आहुतियां दी जाती हैं।
इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन औपचारिक रूप से प्रारंभ होता है, जो परंपरा के अनुसार साढ़े पांच से छह महीने तक चलता है।
आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक महत्व
धर्मग्रंथों जैसे हेमाद्रिकल्प, स्कंद पुराण, निर्णय सिंधु और धर्म सिंधु में उपाकर्म का विस्तार से वर्णन मिलता है।
यह पर्व न केवल आत्मशुद्धि का अवसर है बल्कि शरीर, मन और इंद्रियों की पवित्रता का संदेश देता है।
त्रिवेदी ने बताया कि उपाकर्म का मूल भाव यह है कि मनुष्य पिछले समय में हुए ज्ञात और अज्ञात बुरे कर्मों का प्रायश्चित्त करे और भविष्य में अच्छे कार्य करने की प्रेरणा ले।
उन्होंने कहा –
“मनुष्य ईश्वर की अद्भुत कृति है। उसमें दिव्य शक्तियों के विकास की असीम संभावनाएं हैं। लेकिन अक्सर वह संकीर्ण प्रवृत्तियों में घिरा रहता है। उपाकर्म का पर्व उसे इस घेरे से बाहर आने और अपने भीतर की चेतना को जागृत करने की प्रेरणा देता है।”
निष्कर्ष
सामवेदी उपाकर्म सिर्फ एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि आत्मसंयम, संस्कार और वेद अध्ययन का उत्सव है। यह वह समय है जब द्विज समाज खुद को आत्मशुद्धि के लिए समर्पित करता है और आने वाले दिनों में समाज और राष्ट्र के लिए सकारात्मक कार्यों की प्रेरणा लेता है।

श्रवण कुमार ओड़ जालोर जिले के सक्रिय पत्रकार और सामाजिक विषयों पर लिखने वाले लेखक हैं। वे “जालोर न्यूज़” के माध्यम से जनहित, संस्कृति और स्थानीय मुद्दों को उजागर करते हैं। उनकी पत्रकारिता का उद्देश्य है—सच दिखाना और समाज की आवाज़ बनना।