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मुख्यपृष्ठ History Bhairu Nathji Maharaj's Akhada Jalore भैरू नाथजी महाराज का अखाडा जालौर का इतिहास जाने
History

Bhairu Nathji Maharaj's Akhada Jalore भैरू नाथजी महाराज का अखाडा जालौर का इतिहास जाने

भैरू नाथजी महाराज का अखाडा जालौर का इतिहास जाने Bhairu Nathji Maharaj's Akhada Jalore
Shravan Kumar
Shravan Kumar
16 जुल॰, 2023 0 0
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Bhairu Nathji Maharaj's Akhada Jalore
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भैरू नाथजी महाराज का अखाडा जालौर का इतिहास जाने

जालौर नगर के तिलक द्वार में प्रवेश करते ही सामने की गली में रामदेवजी का मंदिर आता है, उससे थोडा आगे चलते ही एक चौक आता है, जहाँ श्री 1008 श्री भैरू नाथजी महाराज का अखाडा स्थित है ।

नाथ सम्प्रदाय में अखाडा उसे कहते है, जहाँ सन्तजन निवास करते है, जालौर नगर में इस अखाड़े की स्थापना का श्रेय परम् पूजनीय गुरु देव श्री श्री 1008 श्री भैरू नाथजी महाराज को जाता है, जो इन्हीं के नाम से जाना जाता है, भेरुनाथजी महाराज ने उस समय जालौर के हाकिम श्री अचलदास जी से कहकर रेबारियों के मौहल्ले में जमीन खरीदकर यहाँ अखाडा स्थापित किया था ।

अखाड़े की स्थापना के पीछे सबसे बड़ा उद्देशय यहाँ आने वाले श्रद्धालुओ के ठहरने की व्यवस्था करना एवं सिरेमन्दिर तक सामन भेजने हेतु कोठार की स्थापना करना था, क्योंकि सिरेमन्दिर तक सामान व अन्य सामग्री को मार्ग दुर्गम व दूर होने के कारण पहुचना कठिन था, यात्री भी जो बाहर से आते वे रात्री को यहाँ ठहर सके व भोजन पानी कर आराम कर सके, जमीन लेकर महाराज श्री ने प्रथम यहाँ पर कच्चे पड़वे बनाकर नाथजी का धूंणा स्थापित किया और अन्न क्षेत्र का शुभारम्भ किया । 


श्री भेरुनाथजी महाराज के देवलोक गमन बाद श्री 1008 श्री फुलनाथजी महाराज पीठासीन हुए, श्री फुलनाथजी महाराज ने भी यात्रियों के आवागमन की अधिकता को देखते हुए अखाड़े में रसोईघर बनवाया व यात्रियों के ठहरने हेतु कच्चे मकानों का निर्माण करवाया, जलाऊ लकड़ियों के रखने हेतु महाराज श्री ने अखाड़े के सामने एक नोहरा भी ख़रीदा जिसमें आज भी लकड़ियां व गायों हेतु चारा रखा जाता है।


आप सिद्ध योगी थे, सिद्धिया आपकी सेविकाएँ थी, इसलिये भक्त- समुदाय को आपके अनेक चमत्कार देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, एक दो उदाहरण, जिनकी इधर प्रयाप्त चर्चा है, यहाँ रखना चाहूँगा.

सिरेमंदिर पर प्रथम बार गंगा प्रकट की :-

आप भक्तों से घिरे हुए सिरेमंदिर में विराज रहे थे, बोकड़ा गांव के ठाकुर श्री सतीदान एवम् अन्य भाविकों ने आपसे गंगा- स्नान के लिये हरिद्वार चलने का आग्रह किया, इस पर आपने कहा कि गंगा मैया तो यहीँ पर है, भक्तों के आश्चर्य प्रगट करने पर आप उन्हें पास ही मानसरोवर पर ले गये ।

आपके पहुँचते ही उस ग्रीष्म ऋतु में भी देखते-देखते मान सरोवर की तल से बुंदबुन्दे उठने लगे और फिर सारा सरोवर उस गंगा जल से भर गया, फिर आपने अन्य भक्तों के साथ वहाँ स्नान किया, लगभग एक मास तक यह गंगा रही और फिर अलोप हो गई, यह घटना वि.स. 1952 की है ।

सिरेमंदिर पर दूसरी बार गंगावतरण :-

आपके समत्कार की यश - गाथा सुनकर एक अवधूती सिरेमंदिर आकर आपकी सेवा में उपस्थित हुई, आपने उसे ससम्मान ठहरा कर भोजन ग्रहण करने को कहा, इस पर उस योगिनी ने कहा कि मै तो यहाँ पर पहले गंगा स्नान करुँगी और फिर भोजन करूँगी ।

आप तत्काल समझ गये कि यह योगिनी मेरी परीक्षा लेने आई है, आपने भँवर गुफा में जा कर श्री जलन्धर नाथजी का ध्यान किया और प्राथना की, आपको आकाश-वाणी सी अनुभूति हुई, जो कह रही थी कि मानसरोवर को साफ करो, और जब जल पर एक बड़ा पत्थर निकले, तो उसे हटाना, उसे हटाते ही गंगा प्रगट होगी ।

आपको योगिनी के भोजन त्याग की चिन्ता सता रही थी, मानसरोवर की सफाई की गई, फिर पत्थर भी निकल आया, सूचना पाकर आप वहाँ पर गए और पत्थर को हटाया कि गंगा की धारा फुट पड़ी, सुखा मान- सरोवर लहराने लगा ।

आपने फिर उस योगिनी को जगाकर कहा कि उठो मैया, गंगा मया आ गई है, योगिनी वह दृश्य देखकर दंग रह गई, लगभग छः माह तक यह गंगा प्रवाहित होती रही । यह घटना वि.स.1961 की है, इस गंगावतरण पर दूर दूर से आये दर्शनाथियो की अपार भीड़ लग गई ।

उस समय मालुपुओ की प्रसादी बांटी गई, गुफा के सामने वाले भंडार में जो तैयार मालपुए रखे गये थे, इनसे घी निकल - निकलकर सीमेंट से बने हाथी तक आ गया और सारा मार्ग घी से भर गया था, आवागमन के लिए फिर मार्ग पर घास बिछानी पड़ी थी, असंख्य यात्रियों ने इस प्रसादी को ग्रहण किया, उस समय सिरेमंदिर पर "हर की पैड़ी" जैसा मेला था ।

आपके शुभ - आशीष से पहाड़पुरा जिला जालौर के ठाकुर साहब श्री शिवदान सिंहजी के पुत्र श्री देवीसिंह जी केराळ गांव, जिला सिरोही के दहिया सरदार महेशपुरा गांव, जिला जालौर के श्री कानपुरी इत्यादि को पुत्र रत्न प्राप्त हुए ऐसा भी सुनने को मिला ।

और तो और, यह भी जनश्रुति कानों पड़ी कि अपना शरीर छोड़ने के कुछ देर बाद ही आपने माण्डवला, तीखी, मूडी, बालवाडा, सोपाडा और खेड़ा अर्थात सात गाँवो में एक ही समय अमल गालने की (अफीम लेने की ) क्रिया सशरीर प्रत्यक्ष होकर की, और फिर शीघ्रता से ही चल दिए ।

आपके पधारने के कुछ समय पश्चात् ही समाचार पहुँचे कि श्री भैरुनाथजी महाराज को तो सुबह ही समाधी दे दी गई है, तत्कालीन भक्त अवाक् थे आपकी इस अदभुत लीला को देखकर |

आपके तीन शिष्य थे :-

 1. श्री हंस नाथजी महाराज 

2. श्री फतेह नाथजी महाराज 

3. श्री गुलाब नाथजी महाराज

श्री हंसनाथजी नरसाणा गांव जिला जालौर में रबारी कुल में उत्पन्न हुए, और अल्पायु में ही श्री भैरुनाथजी की चरण- सेवा में उपस्थित हो गये, श्री भैरुनाथजी के सुप्रभाव से आपने धर्म और सेवा का अपना उत्तर दायित्व भली भांति निभाया ।

यह दुर्भाग्य अवश्य रहा कि आपको आयु थोड़ी मिली, और श्री भैरुनाथजी के जीवन काल में ही आपका देहावसान हो गया ।

#आपकी समाधी सिरेमंदिर पर है ।

आपके दो शिष्य थे_ 

श्री फुलनाथजी महाराज 

श्री बालक नाथजी महाराज

श्री जलन्धरनाथ पीठ सिरेमंदिर के तृतीय गादीपति गुरुदेव श्री श्री 1008 श्री भैरुनाथजी महाराज की जीवनी

आपका जन्म वारणी 'तहसील आहोर जिला जालौर के एक सुथार परिवार में हुआ था ।

बचपन में ही आपके ह्रदय में नाथ - भक्ति भाव अंकुरित हो गया था । और युवावस्था में पदार्पण करते ही आपने वि.स. 1892 में सिरेमंदिर आकर योगिराज श्री भवानी नाथजी महाराज का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया ।

आपने अपने गुरु महाराज के सुयोग्य निर्देशन में थोड़े समय में ही योग- सिद्धि प्राप्त कर ली और फिर उनके अमृत वचनों का अक्षरश: पालन करते हुए आप नाथ-भक्ति के प्रचार-प्रसार में जुट गए ।

फलत: श्रीजलन्धरनाथ जी की तपोभूमि सिरेमंदिर अपनी प्रतिष्ठा अनुरूप पुनः अभिवृद्धि को प्राप्त करता हुआ श्रद्धालुओ का आकर्षण केंद्र बन गया ।

जालौर नगर में ' अखाडा' स्थापित करने का श्रेय आपको ही प्राप्त है ।

आपने जालौर के तत्कालीन हाकिम स्व. श्री अचलदास से कहकर बारियों के मोहल्ले में जमींन लेकर यह अखाडा स्थापित किया ।

यहाँ आपने भक्तों के सुविधार्थ ठहरने के लिए कुछ कच्चे पडवे बनवाये, तथा धूणी स्थापित की । और अन्न-क्षेत्र का शुभारम्भ किया । आज यह अखाडा' श्रीभैरुनाथजी का अखाडा' के नाम से सुप्रसिद्ध है ।


आपका यह दूरदर्शितापूर्ण कार्य भक्तों और श्रद्धालुओ के लिए वरदान स्वरूप था और हैं ।

जालौर नगर के जिला मुख्यालय होने से लोगों का सरकारी तथा व्यक्तिगत कार्यो के लिए आना-जाना लगा ही रहता था_न कोई धर्मशाला और न ही कोई होटल-लॉज थी । अतः इस अखाड़े में आकर ठहरते थे ।

श्री भैरुनाथजी महाराज इस अखाड़े में भी निवास करते थे और सिरेमंदिर पर भी । आपने सिरेमंदिर पर अखण्ड धूणा भी आरम्भ किया, जो आज " श्रीभैरुनाथजी का धूणा " कहलाता है ।

श्री भैरुनाथजी महाराज इस अखाड़े में भी निवास करते थे और सिरेमंदिर पर भी । आपने सिरेमंदिर पर अखण्ड धूणा भी आरम्भ किया,

जो आज " श्रीभैरुनाथजी का धूणा " कहलाता है । श्रद्धालु इस धुणे की भस्मी लगाकर आपका स्मरण करते है और मनोती मांगते हैं ।

श्री भैरूनाथजी महाराज ने स्वयं को तपस्या तक ही सीमित नहीं रखा, वरन् लोक हित को प्रमुखता देकर सच्चे सन्त की कर्तव्य - निष्ठा का परिचय दिया 

जालौर जिला रेगीस्थानी क्षेत्र है । यहाँ पानी का अभाव देखकर आपके सुकोमल हृदय को बड़ा आघात लगता था ।

आपने जल - कष्ट निवारण की और भरसक प्रयास किया । ' जल-

सिद्धि' आपको प्राप्त थी ही । आपने चारो ओर इस क्षेत्र में घूम-घूमकर भूमि के भीतरी जल- भण्डारों की शोध की और बड़ी संख्या में वहाँ कुँए बावड़ियों का भक्तजन - सहयोग से निर्माण कराया ।

जालौर जिले के गांव भागली, आवलोज, तथा जालौर में सोनारिया बैरा , डगातरा, थलुडा, धानपुर, पहाड़पुरा, बालवाड़ा, बाला, बैरठ, माण्डवला, रजा, लेटा, वायण, सिकवाडा आदि स्थानों पर !

तथा बाड़मेर जिले के दईपड़ा हथुडियो का, एवम् सरूपरा करणोतो का आदि स्थानों पर निर्मित मीठे पानी के कुँए आज भी आपकी कीर्ति-गाथा गा रहे है ।

जहाँ कडुआ जल था, वहाँ आपने मीठा जल बताकर कुए खुदवाये । इस तरह आपने अपनी इस अविस्मरणीय अदभुत देने से इस क्षेत्र के " भगीरथ " होने का गौरव प्राप्त किया ।

आपकी इस परमार्थ - दृष्टि से आजीविका के अन्य मार्ग भी प्रशस्त हुए । किसी समय की सुखी धरती आज हरी ओढनी ओढ़े इठला रही है । बहुत बड़ी देन रही यह आपकी इस क्षेत्र को ।

स्वनामधन्य श्री भैरुनाथजी की प्रकति में परदुखकतराता कूट-कूट कर भरी थी । हर चेष्टा भक्त के कष्ट को अपना कष्ट समझकर उसे मिटाने की आपने हर चेष्टा की ।

अपनी इस परोपकारी प्रवर्ति से आप इस क्षेत्र तक ही नहीं, दूर-दूर तक अत्यन्त लोकप्रिय हो गये ।

समूची सेवक प्रेम-विभोर होकर आपको हर समय घेरे रहती थी । आपने भी भक्तो की मनोकामनाये पूर्ण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

वृद्धावस्था में आपने सिरेमंदिर आकर निवास कर लिया । आपको इस लौकिक जीवन के अन्त का आभास भी संभवतः हो गया था । अतः आप अपने परम् भक्तों को बुला - बुलाकर मिलने भी लगे । ऐसा कुछ दिन चला और अन्ततः अंतिम - यात्रा का दिन भी आ गया । दर्शनातर्थ आये भक्तों की भीड़ से घिरे योगी श्री भैरुनाथजी ने वि. स. 1963, फाल्गुन वदि 2 की पुण्यतिथि की अमृतवेला में यह शरीर छोड़ दिया और पुण्यधाम प्रस्थान कर गये ।

आपके दिवंगत होने का दुखःद समाचार सुनकर प्रेम - विहवल भक्तों की सिरेमंदिर पर अपार भीड़ जुट गई ।

गुलाल की वर्षा के मध्य ढोल-नगारे बजाते तथा शंख - ध्वनि एवम जय- जयकार से गगन गुंजाते भक्तों ने सिरेमंदिर प्रांगण में आपको वसुन्धरा की गोद में आसीन कर समाधि - कार्य संपन्न किया ।

श्री भैरुनाथजी का समस्त जीवन " पर हित सरिस धरम नहीं भाई " का उत्तम उदहारण रहा । आपके परोपकार के असंख्य कार्यो की साक्षी यह क्षेत्र देता है ।


श्री फुलनाथजी महाराज के बाद श्री पूर्णनाथजी महाराज ने अखाड़े का कार्य संभाला व श्री दादा गुरुओं द्वारा संचालित कार्यो को आगे बढ़िया, श्री पूर्णनाथजी महाराज के देवलोक गमन बाद उनके शिष्य श्री केशर नाथजी महाराज नाथ गादी पर बिराजे।

श्री श्री 1008 श्री केशर नाथजी महाराज ने विक्रम सवंत 2012 में श्री भैरू नाथजी के अखाड़े में एक बड़ा कमरा बनवाया तथा अखण्ड धूणा स्थापित किया, महाराज श्री केशर नाथजी तपस्या हेतु सिरेमन्दिर व् चित हरणी पधारते तब आपके शिष्य श्री 1008 श्री भोले नाथजी महाराज अखाड़े की देखभाल करते थे, आपने वि. स. 2021 में शिव मंदिर के निर्माण का शुभारम्भ किया, मंदिर के पूर्ण होने पर सवंत 2021 माघ सुदी पंचमी के दिन शुभ मुहर्त में आपके तत्वाधान में श्री जलन्धरनाथजी की मूर्ति को भव्य प्रतिष्ठा महोत्सव कर स्थापित किया ।

श्री 1008 श्री भोले नाथजी महाराज के ब्रह्मलीन होने के पश्चात विक्रम सवंत 2025 की कार्तिक शुक्ल सप्तमी सोमवार के दिन शुभ मुहर्त में पूज्य श्री 1008 पीरजी श्री शान्तिनाथजी महाराज सिरेमन्दिर पर पीठासीन हुए तथा अखाड़े का कार्यभाल संभाला, आपने अखाड़े में नवनिर्माण का कार्य तीव्र गति से आरम्भ करवाया ।


अखाड़े में गौशाला बनवाई, जिससे गौ दूध की आपूर्ति होने लगी, अखाड़े के पीछे आधुनिक सुख-सुविधायुक्त विशाल धर्मशाला श्री जलन्धरनाथजी महाराज के नाम से बनवाई, जिसमे अपने बड़े गुरु भाई श्री 1008 श्री भोलेनाथजी महाराज का सुन्दर छोटा मंदिर बनवाकर उनकी मूर्ति की स्थापना भव्य समारोह करके की जिसमे पुरे भारतवर्ष के महान संतो का आगमन हुआ था ।

धर्मशाला में संतो द्वारा कथा प्रवचन का कार्य चलता रहता है, यात्रियों के ठहरने हेतु कमरे आधुनिक सुखसुविधाओं से युक्त है, आज जो सुन्दरता लिये हुए अखाड़े का स्वरूप हमे दिखाई देता है, वह श्री श्री 1008 पीरजी श्री शान्तिनाथजी महाराज की ही देन है, ऐसे संत विरले ही होते है, जो अपने दादा गुरुओं के सपनों को साकार करते है ।
















श्री श्री 1008 पीरजी श्री शान्तिनाथजी महाराज के देवलोक गमन पश्चात् श्री 1008 श्री गंगा नाथजी महाराज वर्तमान पीठाधीश है, आप भी अपने गुरुजी द्वारा किये जा रहे कार्यों को बहुत तीव्रगति से आगे बढ़ा रहे है, आपके हाथों अभी श्री भैरू नाथजी महाराज के अखाड़े में श्री जलन्धरनाथजी महाराज के मन्दिर का पुनः निर्माण किया गया है, जिसकी प्रतिष्ठा हाल ही सम्पन हुई, अखाड़े की पुरानी पोळ को हटवा कर एक नई विशाल पोळ का निर्माण भी हाल में किया गया है, इसके आलावा भी नये निर्माण कार्य किये गए है ।

भैरूनाथ अखाड़े के कमलनाथजी महाराज जी का जीवन परिचय :-










ब्रह्मलीन पीर शांतिनाथजी महाराज के बड़े शिष्य योगिराज श्री कमल नाथजी महाराज मूलतः रानीवाङा उपखंड के देवनगरी दांतवाडा गांव के रहने वाले थे, उनका जन्म देवासी परिवार में हुआ था, उनके पिताजी का नाम सवाराम जी तथा माता का नाम तुलसीबाई है, वहीं महाराज जी बड़े भाई रामाजी है, वहीं कमलनाथजी महाराज जी का संसारिक जीवन का नाम लच्छारामजी था ।

महाराज जी के गुरु भाई जालौर सिरेमंदिर के वर्तमान गादी पति श्री श्री 1008 श्री गंगानाथजी महाराज भी ब्रह्मलीन शांतिनाथजी महाराज के शिष्य है, कमलनाथजी महाराज के सात शिष्य है, जिसमें सबसे बडे शिष्य प्रेमनाथजी महाराज, मोहन नाथजी महाराज, निर्मलनाथजी महाराज, रामेश्वर नाथजी महाराज, गौविंदनाथजी महाराज, वजेनाथजी महाराज है ।

गुरु भाई :-

1.श्री श्री 1008 श्री गंगा नाथजी महाराज

2 श्री 1008 श्री धर्म नाथजी महाराज 

3 श्री 108 श्री किशन नाथजी महाराज 

4 श्री 108 श्री हरी नाथजी महाराज 

5 श्री 1008 श्री विक्रम नाथजी महाराज 

कमल नाथजी महाराज के गुरु भाई श्री श्री 1008 श्री गंगा नाथजी महाराज सिरेमन्दिर भैरु नाथजी अखाड़ा के पीठाधीश है, श्री 1008 श्री विक्रम नाथजी महाराज सोनाणा खेतलाजी की गादी पर विराजमान है, वही महाराज जी के दो शिष्य बड़े अखाड़ो के मठाधीश है, जिसमे निर्मल नाथजी महाराज नाथ सम्प्रदाय के राजा की गादी पर विराजमान है, नाथ पंथ का सबसे बड़ा मठ कदली मठ मैंगलोर के पीठाधीश है, दूसरे मोवन नाथजी महाराज नागौर पीठ थोवला मठ के गादीपती है ।

श्री श्री 1008 योगिराज श्री केशरनाथजी महाराज की 👇

वरसी दिवस :- 9 जून 17 ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष पूर्णिमा शुक्रवार

अमृत लीला :-

श्री पूर्णनाथजी महाराज के ब्रह्मलीन होने के उपरान्त आप वि.स. 2006, मिगसर वदि 4 को सिरेमंदिर पाट-गादी पर विराजे ।

आपका जन्म - स्थान पिपलोन तहसील सिवाणा जिला बाड़मेर, जहाँ एक रबारी ( देवासी ) परिवार में आपने शरीर धारण किया। 

घर की साधारण अवस्था थी और आप पशु चराकर जीवनयापन कर रहे थे, बचपन से ही आप भक्ति भावना रखने वाले संयमी पुरुष थे ।

एक बार गायों को चराते - चराते आप आबू पर्वत पहुँच गये, वहाँ आपको एक दिव्य गुण सम्पन्न आत्मा से साक्षात्कार का - जंगल में सुयोग मिला, उन्होंने आपको प्रेरणा दी कि तुम सिरेमंदिर, जालौर जाकर नाथजी के चरणों में अपना जीवन समपिर्त कर दो ; तुम्हारा जीवन सार्थक हो जायेगा ।

उस समय आपके परिवार में वृद्ध माता और एक बहिन थी, आबू में उपयुरक्त संकेत पाकर आपके ह्रदय में सांसारिक माया • मोह का जीवन त्यागने की इच्छा बलवती हो उठी, आप ह्रदय - में उठे वैराग्य भाव को रोक न सके और पवित्र तपोभूमि सिरेमंदिर आकर श्री गणेशनाथजी के चरणों में स्वम् को संप्रित कर दिया, श्री गणेश नाथजी आपके चोटी गुरु हुए, वि.स. 1993 में आपने श्री पूर्णनाथजी महाराज से दीक्षित होकर वेश धारण किया ।

उन दिनों भारणी गाँव, तहसील भीनमाल जिला जालौर में श्री भोला गिरिजी महाराज तपस्या -रत थे, वे योग- मार्ग में प्रवीण सिद्ध थे, दीक्षित होने के पश्चात् तुरन्त ही आप श्री भोलागिर जी की सेवा में उपस्थित हुए और योग तथा षट् - कर्म की विद्या सीखनी प्रारम्भ की, तीन वर्ष के कठोर अभ्यास के उपरान्त आप योग- विद्या में प्रगति कर वि.स. 1995 में गाँव भागली पधारें और फिर जालौर अखाड़े में पधारें ।

जालौर के अखाड़े तथा सिरेमंदिर आदि स्थानों का कार्य - भार आपके गुरु महाराज भली भांति संभाले हुए थे, तपस्या हेतु उपयुक्त समय जानकर आपने गुप्त- आज्ञा प्राप्त की और वि.स. 1996 में गाँव भागली में चित् हरणी नामक स्थान पर जाकर गुप्त-वास किया तथा कठोर तपस्या में जुट गए, इस अवस्था में लगभग छः माह बाद भक्त "गेनाजी देवासी भागली 'को आपके सर्वप्रथम दर्शन हुए थे ।

उसके बाद गेनाजी देवासी और श्री मंगलसिंहजी सिंधल भागली ने आपकी सेवा प्रारम्भ की, पता पड़ने पर भागली तथा आस-पास के अन्य गाँवो के निवासी भी धीरे धीरे आपकी सेवा में उपस्थित होने प्रारम्भ हुए, चित्-हरणी में श्री केशरनाथजी महाराज ने तीन वर्ष तक कठोर तप किया, वहाँ गुफा, धुणा और नाथजी के चरण चिन्ह है, जिनकी स्थापना आपके कर कमलों से ही हुई थी, आपका चित्-हरणी का धुणा तो आज भी मनोकामना पूर्ण करने वाला माना जाता है, वि.स. 1999 में तपोमूर्ति श्री केशरनाथजी सिरेमंदिर पधारें ।

उस समय सिरेमंदिर और आस-पास का क्षेत्र तनिक शिथिलाचार का शिकार हो रहा था, बड़े अधिकारी यहाँ नृत्य- युक्त आमोद-प्रमोद की गोष्टियां आयोजित करने लगे थे, इससे यह स्थान अपनी गरिमा खोने लगा था, और मात्र एक पर्यटन स्थल बनता जा रहा था, शिवरात्रि पर लोग यहाँ एकत्रित हो कर चंग पर अश्लील गीत गाते थे ।

श्री केशरनाथजी ने अपने गुरु भाई श्री नवेनाथजी तथा शिष्य श्री अमरनाथजी के सहयोग से दृढ़ता दिखाते हुए ऐसे अधार्मिक आचरणों को बंद किया और इस स्थान को पुनः पवित्र रूप दिया ।

सिरेमंदिर की सुव्यवस्था स्थापित कर आपने वि.स. 2004 में रेवत गाँव में पधार कर निवास किया और यहाँ प्रेरणा प्रदान कर श्री जलन्धर नाथजी का मंदिर बनवाया, जिसमेँ स. 2005 में मूर्ति प्रतिष्ठित हुई ।

तत्पश्चात भागली गाँव के भक्तों के आग्रह पर आपने भागली में अपना धुणा जगाया और आसान जमाया, उस समय भागली गाँव के निवासी किसी न किसी व्याधि से हर समय त्रस्त रहते थे, ग्रामवासियों ने इससे छुटकारा दिलाने की आपसे प्रार्थना की ।

आपने उन्हें नया गाँव बसाने का सुझाव दिया, गाँव वाले नाथजी की अटूट भक्ति से प्रेरित हो कर इस प्रस्ताव पर सहमत हो गए, आपने योग दृष्टि से पास ही नई भूमि का शोधन किया, जहाँ लोग जाकर बसने लगे, वि.स. 2007 से 2011 तक का समय इस नई बसावट में लगा था, आपने एक मडी बंधवाई और दो मंदिर एक श्री जलन्धर नाथजी का और दूसरा श्री जागनाथजी का बनवाये, जिनकी प्रतिष्ठा आपके कर कमलों द्वारा वि.स. 2011, ज्येष्ठ माह में हुई ।

इस प्रकार आपने वि.स. 2006 में गादी - भार सँभालने के बाद थोड़े समय में ही आसपास के गांवों में अच्छी जागृति पैदा की और इस पीठ की प्रतिष्ठा बढ़ाई।

गाँव खेड़ा सरदारगढ़ में नदी के किनारे खड़िया बेरा आया हुआ है, वि.स. 2011 में इस रमणीक स्थान पर आपने पक्की साळ बनवाकर धुणा चेतन किया और अपना आसण जमाया, यहाँ बाद में भी आपका आना जाना रहा ।

वि.स. 2012 में श्री केशर नाथजी ने भैरुनाथजी के अखाड़े में एक बड़ा कमरा बनवाकर अखण्ड धुणा कायम किया और निवास किया ।

तत्पश्चात वि.स. 2013 में गाँव बैरठ के पास आपने श्रीनाथजी के मंदिर में आसण जमाया, यहाँ आपने पक्का धुणा एवम् कमरा बनवाया, भक्त समुदाय को आप नित्य ज्ञानोपदेश भी देते, अल्प समय में ही आपने अपने निश्छल प्रेम एवम् सच्ची नाथ भक्ति से यहाँ और निकट के अशिक्षित श्रद्धालुओं में अच्छी चेतना जाग्रत की, यहाँ लगभग दो वर्ष निवास कर आप फिर जालौर अखाड़े में पधार गये ।

जालौर अखाड़े में आपके पधारते ही यहाँ अच्छी धार्मिक हुई, अखाड़े में सत्संग - जागरण के कार्यक्रम नित्य प्रति होने लगे, अनेक भजन मण्डलियों का इसमे बड़ा सहयोग - रहा, इसका जनसाधारण पर उत्तम प्रभाव पड़ा और इस स्थान के प्रति उनका आकर्षण खूब बढ़ा, आपके धर्मोपदेशो को सुनने के लिए जनता उमड़ी पड़ती थी ।

भक्त - के आग्रह पर तथा श्रीनाथ स्थलों की सुव्यवष्ठा हेतु आप निरन्तर विचरण करते ही रहते थे, कभी कही, तो कभी कही ।

॥ 'साधु तो रमता भलां' 11

इसे आगत का संकेत ही समझा जाना चाहिए कि आप वि.स. 2017 में जालौर अखाड़े में पधार कर निवास करने लगे और इसी वर्ष ज्येष्ठ शुक्ला 15 गुरूवार के दिन आप पुण्यात्मा का परमब्रह्मा से मिलन हो गया ।

आपके देहावसान का जब दुखद समाचार विधुत गति से फैला, तो अपार जन समूह आपके अंतिम दर्शनार्थ अखाड़े में एकत्रित हो गया, आपके समाधि जुलुस की अपूर्व तैयारियाँ हुई और फिर आपकी देह को सिंहासनारूढ़ कर गगन भेदी जय- जयकार के मध्य भजन-कीर्तन के साथ सिरेमंदिर लाया गया। 

लोग सुनाते है की नियत स्थान पर समाधि खोदना प्रारम्भ किया ही था, कि बीच में बड़ा सा पत्थर आ गया, जिसे सामान्य सी बात समझी गई, पर ऐसी सामान्य थी नहीं, एक भक्त की अंतिम दर्शन की अभिलाषा से ही यह लीला हुई थी ।

बागरा निवासी भक्त भबूतमल जैन को गुरुदेव के देहावसान का समाचार कुछ देरी से मिला, सुनते ही वे गुरुदर्शन के प्यासे रवाना हो तो गए, पर सशंकित थे, कि देरी होने जाने के कारण अंतिम दर्शन शायद ही होंगें ।

यदि उन्हें समाधि में विराजमान कर दिया, तो इस जन्म तो दर्शनलाभ होने से रहा, अन्ततः तेज चलते चलते वे सिरेमंदिर आ ही पहुँचे और और दर्शन भी हो गए, वह बड़ा सा पत्थर भी सहजता से निकल गया और समाधि कार्य विधिवत् सम्पन हुआ ।

योगीराज श्री केशरनाथजी के तेजोमय व्यक्तिव की चर्चा करते आज भी लोग नहीं अघाते, योगाग्नि से आपकी देह-यष्टि दीप्ती थी, तपे तपाये शुद्ध स्वर्ण सा केसरिया शरीर आपके नाम को सार्थक करता था, लम्बी कद-काठी, पृथ्वी को स्पर्श करती जटाएँ, प्रदीप चेहरा और मनोहारी वाणी तथा सात्विक आचरण ने अदभुत आकर्षण भर दिया था आपके व्यक्तित्व में

आँखों में ऐसा तेज था कि लोग द्रष्टि से दृष्टि नही मिला पाते थे, कच्चे-पक्के लोग तो आपके निकट आने का साहस ही नहीं जुटा पाते थे, दूसरे के मनोभाव पढ़ने में आपको समय नहीं लगता था, आगन्तुक के मन की बात पहले ही जान लेते थे ।

आँखों में ऐसा तेज था कि लोग द्रष्टि से दृष्टि नही मिला पाते थे, कच्चे-पक्के लोग तो आपके निकट आने का साहस ही नहीं जुटा पाते थे, दूसरे के मनोभाव पढ़ने में आपको समय नहीं लगता था, आगन्तुक के मन की बात पहले ही जान लेते थे ।

मन के मैले मनुष्यों से आप बात तक करना पसन्द नही करते थे, अतः ऐसे "सज्जनों" के आगमन से पूर्व ही आप समाधिस्थ हो जाते थे, और कई घंटे बीत जाने पर सचेतन होते थे, कभी - कभी तो दो-दो दिन तक अन्य भक्तगणों को भी आपके सजग होने की प्रतीक्षा में भूखे-प्यासे बैठे रहना पड़ता था, आप सहज समाधि में लीन रहते थे, अपनी निश्छल, भोली तथा अशिक्षित सेवकी को आप अत्यन्त प्रेममयी दृष्टि से देखते थे और उनके सुख-दुःख में साझीदार बनते थे, जो भी आपकी कृपा-दृष्टि पाने में सफल रहा, उसने अपना अहोभाग्य समझा, आप आशुतोष शिव अवतार महापुरुष ही थे, आपकी जीवन ला में कभी आपकी फोटो कैमरे नही आई ।

आपकी शिष्य मण्डली :-

श्री श्री 1008 श्री अमरनाथजी महाराज

श्री श्री 1008 श्री भोलानाथजी महाराज

श्री श्री 1008 श्री शान्तिनाथजी महाराज

जालोर पीर श्री शान्तीनाथजी मह्राराज का जीवन परिचय


श्री श्री 1008 पिर  श्री  शान्तीनाथजी महाराज का

जिवन  परिचय --

आपका  अवतरण जालोर शहर से 12km दुर  भागली सिधलान गावं मे श्री रावतसिहजी जोरावत के  घर विक्रम संवत  1996 माघ  कृष्ना 5 ने सोमवार ब्रह्म मुहरत मे 3 बजकर 30 मिनट  को हुआ ।

आपकी माता श्री का नाम  सिनगारी देवी था ।

आपके बचपन का नाम ओटसिह  था ।

आपका ननिहाल बागरा के सोलकी परिवार  मे था ।

आप तिन  भाई  थे ।

मंगल सिंह जी, बहादुर सिंह जी , साकलसिन्ह्जी था ।

आप अपने भाईयो मे सबसे  छोटे  थे ।

आपके पिताजी  गुरु केशरनाथ जी महाराज के भक्त थे । तथा आप भी बचपन से हि गुरु भक्ति मे निपुण थे , आप अपने गुरु के लिए रोजाना दुध का लोटा लेकर  जाया करते थे ।

इस तरह आपके माता - पिता ने आपको बचपन मे ही आपके संत रुप को देखकर  आपको  योगी केशरनाथ  जी  समपिर्त कर दिया !

आप 8 वर्ष कि कोमल आयु मे हि  गुरु  भक्ति मे लिन हो गये  थे ।

आपकि ओपचारिक शिक्षा  जालोर के  एक निजी विधालय विरमारामजी राजपुरोहित के पास हुई ।

आप 6 महिने  मे हि पढना -लिखना सिख गये थे ।

आपकी दीक्षां विक्रम संवत 2011 मे कार्तिक शुक्ला पाशम ने सोमवार के दिन  सिरे मन्दिर मे शाम 5 बजे  योगि केशर नाथ जी के  हाथों हुई ।

आप  कई सालो तक गुरु सेवा की ।

आपका सिरे मन्दिर के पीठाधीश्वर के रुप मे गादितिलक  विक्रम संवत 2025   मे श्रेत्र  शक्ला सप्तमी  सोमवार  को हुआ था ।

                   स्थान - वेरठ ।

23

      विक्रम  संवत -2060

                 सन -2003

                 स्थान -सिरे मन्दिर ।

24.

       विक्रम संवत -2061

                 सन - 2004

                 स्थान -सिरे मन्दिर।

25.

       विक्रम  संवत -2062

                  सन- 2005

                  स्थान- भेरुनाथ जी अखाड़ा

26.

       विक्रम  संवत -2063

                   सन-2006

                   स्थान -सिरे मन्दिर ।

27

    .   विक्रम संवत -2064

                    सन-2007

                   स्थान -जोलोर किला पर ।

28.

         विक्रम  संवत - 2065

                      सन-2008

                     स्थान -आशापुरा मन्दिर मोदरा ।

29

        विक्रम  संवत  - 2066

                    सन -2009

                   स्थान  ,बालवाडा

30

    विक्रम  संवत -2067

                     सन -2010

               स्थान -सिरे मन्दिर।

    31

      विक्रम संवत 2068

               सन  2011

               स्थान - पावन भूमि शुरा  ।

   32

         विक्रम  संवत2069

                    सन  2012

     स्थान  बोखडा

इस तरह आपने अपने जिवन काल मे 32 चातुर्मास कर  गावं - गाव मे  धर्म कि अलख जगाकर आप  सब नाथो के नाथ बन गए ।

आपने अपने जिवन काल मे अपने कर कमलो द्रारा

 अनेक मन्दिरो  का निमार्ण, प्रतिष्ठा , शिलान्यास किया ।⬇⬇⬇⬇⬇⬇⬇⬇⬇⬇

,सुरा मे  श्री  जलन्धर नाथ जी के मन्दिर का निमार्ण करवाया ।

 वेरठ मे  श्री  जलन्धर नाथ जी के मन्दिर का निमार्ण करवाया 

रेवत मे   श्री  जलन्धर नाथ जी के मन्दिर का  निमार्ण करवाया 

डकात्रा मे   श्री  जलन्धर नाथ जी के मन्दिर का   .      निमार्ण करवाया ।

कलापुरा मे   श्री  जलन्धर नाथ जी के मन्दिर का निमार्ण करवाया ।

. गुड़गांव मे   श्री  जलन्धर नाथ जी के मन्दिर का निमार्ण करवाया ।

शुरा मे शिवजी  के मन्दिर का शिलान्यास करवाया ।

बिशनगढ मे महादेवजी के मन्दिर का शिलान्यास करवाया ।

भिमपुरा मे महदेवजी के मन्दिर का शिलान्यास  करवाया ।

धानसा मे शिवजी के मन्दिर  का शिलान्यास करवाया  ।

मोदरा मे आशापुरा मन्दिर का शिलान्यास करवाया ।

नागाना मे नागनेशिया  धाम का शिलान्यास करवाया ।

तिलवाडा,मे रानी रुपादे के पालने का शिलान्यास करवाया

जसोल मे माता राणी भटियानी के मन्दिर का शिलान्यास किया ।

नाडोल  मे आसापुरा मन्दिर का निमार्ण  करवाया ।

जालोर मे नागनेशिया मन्दिर कि प्रतिष्ठा  करवाइ ।

जालोर मे  गुप्तेशर महादेव मन्दिर कि प्रतिष्ठा करवाइ

जालोर मे कालका माँ  के मन्दिर कि प्रतिष्ठा  करवाई ।

झरनेश्वर महादेव मन्दिर  कि प्रतिष्ठा करवाई ।

पानिया नाद्दा मे झरलाजी व हल्देश्वर महादेवजी के मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा करवाई ।

सेवडा़ मे पतलेश्वर स्वामी के मन्दिर का शिलान्यास करवाया ।

रोजाढाणी जाकर आपने  महादेवजी के मन्दिर का निमार्ण करवाया ।

रायथल मे पाडेशर मन्दिर कि निव कि शिला धराइ ।

जालोर मे आपने रामदेवजी का मन्दिर बनवाया ।

सिरे मन्दिर मे अलख समाधियो का निमार्ण करवाया ।26.

शितहरनी कि  जुनी झोपड़ी का आपने भव्य निमार्ण करवाया ।

जालोर परमारो कि राय अदरदेवी का धाम बनवाया ।

रेवतडा़ मे आपने  भोलेनाथ के मन्दिर का शिलान्यास करवाया ।

कनयागिरी मे रत्नेशर मन्दिर व सिरे मन्दिर का निमार्ण करवाया ।

सरुपरा मे महदेवजी के मन्दिर  का निमार्ण करवाया ।

बोखडा़ मे महादेवजी के मन्दिर का निमार्ण करवाया ।

गावं देवकी मे आपने  ठाकुरजी का मन्दिर  बनाया ।

पिर शान्तीनाथजी महाराज के परम  शिष्य रत्न ।

1--श्री कमलनाथ जी मह्राराज ।

2--श्री गंगानाथ जी महाराज ।

3 - श्री किशन नाथ जी महाराज ।

4-- श्री  हरीनाथ जी महाराज ।

5- श्री धरमनाथ जी महाराज ।

6 - सबसे छोटे विक्रम नाथ जी

योगीराज श्री विक्रमनाथजी

अखाड़ों का इतिहास और परम्पराओं 

कभी सोचा है कि साधुओं के इन समूह को अखाड़ा क्‍यों कहा जाता है, जबकि अखाड़ा तो वह होता है जहां पहलवान लोग कुश्‍ती लड़ते हैं? आज के इस विश्लेषण में आपको बताएंगे कि आखिर यह अखाड़े हैं क्या? इनकी परंपरा और इतिहास क्या है? मुगलों और राजाओं के समय में राजाओं को पहलवानी सिखानी बहुत जरूरी होती थी क्योंकि उनको प्रतियोगिता में भाग लेने पड़ता था। इसका दो उधरना आज भी जालौर से जुड़े मौजूद है और जन-जन की जुबान पर है। आपको बता दें कि

( 1 ) 

जालोर के शासक कान्हड़देव, रानी जैतल दे और राजकुमार बीरमदेव रंगशाला में आ गये। उनकी अगवानी सेनापति बीका जी दहिया कर रहे थे। बीका दहिया रणबांकुरा वीर सेनानी था जिसकी बहादुरी के कारनामे पूरे राजस्थान में चर्चित थे। एक तो जालोर का अभेद्य किला उस पर कान्हड़देव जैसा प्रतापी शासक और तीसरे बीका दहिया जैसा शूरवीर सेनापति। इस गठजोड़ ने जालोर को समकालीन इतिहास में अजेय बना दिया था। रानी जैतल के सानिध्य में राजकुमार बीरमदेव इस संगठन में सीमेंट का काम कर रहे थे। 

सेनापति बीका दहिया ने समस्त अस्त्र-शस्त्रों का परिचय कराते हुए तलवार,असि,चंद्रहास, परशु , भाला, खांडा, खड़ग, बरछी , कटार आदि का पूजन करवाया। फिर शिरस्त्राण और ढालों का भी पूजन किया गया। युद्ध में जितना महत्व अस्त्र-शस्त्रों का होता है उससे कहीं अधिक शिरस्त्राण और ढालों का होता है। यह बात जैतल दे ने राजकुमार को समझाई थी। जब तक दुश्मन के वार से बचेंगे नहीं तो दुश्मन का सफाया कैसे कर पायेंगे ? युद्ध में आक्रमण के साथ बचाव भी बहुत आवश्यक होता है। 

अस्त्र-शस्त्रों की पूजा के पश्चात ये सभी लोग युद्ध शाला में आ गये। यहां पर विशाल जनता पहले से ही मौजूद थी। चारों ओर "जय जालोर, जय कान्हड़देव" ,"जय जैतल दे" , "जय बीरमदेव" के नारों से जालोर की धरती गुंजायमान हो रही थी। लोगों का उत्साह देखते ही बन रहा था। वर्ष का सर्वश्रेष्ठ योद्धा कौन बनेगा इसका निर्धारण होना था। जालोर राज्य में कान्हड़देव ने यह परंपरा स्थापित कर दी थी कि मल्ल युद्ध, द्वंद्व युद्ध और तलवार युद्ध के आधार पर सर्वश्रेष्ठ योद्धा का चयन किया जाता था। इससे राज्य को एक परम शूरवीर सैनिक मिल जाता था और दूसरे शूरवीर सैनिकों की पहचान भी हो जाती थी जिन्हें सेना में विभिन्न पदों पर रख लिया जाता था। 

आज का आकर्षण का केन्द्र राजकुमार बीरमदेव ही थे। प्रतियोगिता के नियमों के अनुसार 15 वर्ष पूरे होने के पश्चात ही कोई युवक इस प्रतियोगिता में भाग ले सकता था। राजकुमार बीरमदेव इस वर्ष 15 वर्ष के हुए थे अत : वे पहली बार इस प्रतियोगिता में भाग लेने वाले थे। लोग राजकुमार बीरमदेव की एक झलक देखने के लिए आतुर थे। राजा कान्हड़देव सामने बने विशाल प्रांगण में आ गये। वहां पर पहले से ही सिवाना के राजा शीतलदेव विराजमान थे। उन्हें इस आयोजन पर विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था। मंत्री जैतसिंह उनकी अगवानी में लगे हुए थे। 

रानी और अन्य महिलाओं के लिये अलग से व्यवस्था की गई थी। रनिवास सदैव झीने पर्दे की ओट में रहता है। चांद तो हमेशा ही बदलियों के पीछे से झांकता हुआ अच्छा लगता है। खुले में चांद को नजर लगने की संभावना रहती है। रानी जैतल दे यद्यपि 15 वर्ष के पुत्र की मां थीं किन्तु रूप लावण्य में वे रानी पद्मिनी से कम नहीं थी। ये अलग बात है कि उनके सौन्दर्य का उतना जिक्र नहीं हुआ जितना पद्मिनी का हुआ था। शायद इसका कारण मलिक मोहम्मद जायसी हैं जिन्होंने "पदमावत" लिखकर उन्हें अमर बना दिया।  

यहां पर सिवाना की रानी मैना दे अपनी राजकुमारी हेमा दे के साथ पहले से ही मौजूद थी। उन् आज के कार्यक्रम के लिए विशेष रूप से बुलवाया गया था। राजकुमारी हेमा दे अभी 12 वर्ष की हुईं थीं। यौवन रूपी बगिया की दहलीज पर खड़ी थीं वे। बदन में कसावट आने लगी थीं। आंखों में मदिरा भरने लगी थीं। जुल्फों के नाग फन उठाने को आतुर होने लगे थे। नितंब मद के भार से फैलने लगे थे इस कारण चाल भी कुछ कुछ मतवाली होने लगी थी। कांचली लंहगा में राजकुमारी बड़ी खूबसूरत लग रही थी। रानी जैतल दे ने राजकुमारी के ललाट पर एक चुंबन अंकित करते हुए उसके सिर पर हाथ फिराया और अपने पास में बिठा लिया।

"हमारी हेमा दे तो अब बड़ी हो गई हैं और हैं भी बहुत खूबसूरत। अब तो इनके विवाह की तैयारी शुरू कर दो रानी मैना दे सा। क्यों क्या खयाल है" ? 

रानी मैना दे रानी जैतल दे की ओर देखकर बोलीं 

"खयाल तो बहुत नेक है राणी सा। पर अभी तो राजकुमारी जी छोटी हैं। अभी दो चार साल और लगेंगे इन्हें शादी लायक होने में। सोलहवें सावन में परणायेंगे इन्हें"

"बात तो सही कह रही हो राणी सा। कोई लड़का देखा है क्या कहीं" ? 

"अभी तक तो नहीं देखा है पर एक लड़का हमारी निगाह में है। हमें लगता है कि वह लड़का राजकुमारी जी के लिए सर्वथा उपयुक्त रहेगा" 

"कौन है वो खुशनसीब ? हमें भी तो पता चले" 

सिवाना की रानी मैना दे चुप रहीं। वह कहती तो कैसे कहती कि हां , हमारी निगाह में राजकुमार बीरमदेव हैं। पर इस बात पर क्या पता रानी जैतल दे बुरा मान जायें इसलिए चुप रहना ही बेहतर समझा उन्होंने। 

रानी मैना दे को चुप देखकर रानी जैतल दे भी चुप हो गईं और वे मल्ल युद्ध का आनंद लेने लगीं। एक से बढकर एक योद्धा अपना पराक्रम दिखा रहे थे। जो विजेता थे उन्हें अलग बैठाया जा रहा था। विजेताओं के चेहरे पर उल्लास सूरज की तरह दमक रहा था। वे एक दूसरे को देखकर मन ही मन एक दूसरे की शक्ति का आकलन कर रहे थे और भावी रणनीति बना रहे थे क्योंकि अगले चक्र में उन्हें आपस में ही भिड़ना था। 

द्वितीय चक्र शुरू हुआ। यह चक्र ज्यादा रोमांचक था क्योंकि इस चक्र के सभी प्रतिभागी किसी न किसी को पराजित करके इस चक्र में आये थे। अत: उनमें जोश और फुर्ती ज्यादा थी। इस चक्र में चार विजेता घोषित हुए थे। उनके मध्य फिर से मुकाबला कराया गया। इस तरह अंत में एक विजेता घोषित हो गया। अब उस विजेता का मुकाबला राजकुमार बीरमदेव से होना था। राजकुमार को ये छूट थी। राज परिवार का सदस्य सीधे ही फाइनल में लड़ता था। 

राजकुमार बीरमदेव अखाड़े में आ गये थे। उनका गोरा बदन सोने की भांति दमक रहा था जिसके रिफ्लेक्शन से लोगों की आंखें चौंधिया रही थीं। बीरमदेव के शरीर पर एक भी बाल नहीं था। लड़कियों की तरह चिकना लग रहा था उनका शरीर। एक तो गठीला बदन उस पर एकदम गोरा चिट्टा रंग और शरीर पर एक भी बाल नहीं। रनिवास में हाहाकार मच गया था। लोग उनकी सुंदरता पर मोहित हो रहे थे और रानी जैतल दे आनंद से भर उठी थीं। रानी मैना दे तो उनकी सुंदरता देखकर मंत्रमुग्ध हो गई थीं और भगवान से प्रार्थना करने लगीं थीं कि राजकुमार को विजयी बना दें। मन ही मन वे उन्हें अपना दामाद बना चुकी थीं। राजकुमारी हेमा दे भी बीरमदेव के सुंदर शरीर को आश्चर्य से देख रही थीं। उनकी बड़ी बड़ी आंखें और भी बड़ी हो गई थीं। राजकुमार के गौर वर्ण के सम्मुख राजकुमारी का रंग फीका लग रहा था। राजकुमारी कभी बीरमदेव को तो कभी अपनी मां मैना दे को देख रही थी। 

राजकुमार के सामने जो पहलवान खड़ा था वह चार कुश्ती जीत चुका था। इस प्रकार उसका जोश सातवें आसमान पर था। उसकी उम्र लगभग 25 वर्ष की थी। राजकुमार बीरमदेव का बदन यद्यपि गठीला था मगर वह उस युवक के सामने हल्का लग रहा था। जनता "जय जालोर, जय बीरमदेव " के नारे लगा लगाकर उनमें जोश भर रही थी। राजा कान्हड़देव, सीतलदेव और सेनापति बीका , मंत्री जैतसिंह वगैरह सब लोग दोनों खिलाड़ियों का उत्साह वर्धन कर रहे थे। दोनों योद्धा जी जान लगा रहे थे जीतने के लिये। युवक यद्यपि बलिष्ठ था पर राजकुमार चपल थे। जब जब युवक राजकुमार पर आक्रमण करते राजकुमार सावधानी से उस आक्रमण से बच निकलते। इससे युवक थोड़ा चिढ गया था और बार बार वार विफल हो जाने पर उसे गुस्सा आने लगा था। बस, यहीं मात खा गया वह। गुस्से में कोई भी दांव सही नहीं लगता है इसलिए गुस्से में लिया गया हर निर्णय अक्सर गलत होता है। यही बात जैतल दे ने राजकुमार को सिखाई थी। राजकुमार इसी अवसर की तलाश में थे। अब उन्होंने जो दांव लगाया तो वह युवक सीधे चित्त हो गया। पूरा पाण्डाल तालियों से गूंज उठा। "राजकुमार बीरमदेव अमर रहे" के नारों ने बता दिया कि इस मल्ल युद्ध का परिणाम क्या रहा था। 

इसी प्रकार द्वंद्व युद्ध और तलवार बाजी की प्रतियोगिता भी राजकुमार ने जीत ली थी और वे जालोर के नये "सर्वश्रेष्ठ योद्धा" बनकर उभरे। राजा कान्हड़देव और रानी जैतल दे की खुशियों का कोई वारापार नहीं रहा। राजकुमार बीरमदेव के रूप में जालोर को अपना भविष्य दिखाई दे रहा था। कान्हड़देव ने दोनों को क्रमश: प्रथम और द्वितीय स्थान के पुरुस्कार प्रदान करने के लिये सिवान के राजा शीतलदेव को आगे कर दिया। मेहमानों को उचित आदर सम्मान देने का रिवाज राजस्थान में शुरू से ही रहा है। राजा शीतलदेव ने राजकुमार बीरमदेव को सीने से लगा लिया और उन्हें बहुत बहुत बधाइयां दी तथा "जालोर का भविष्य" घोषित कर दिया।

( 2 ) 

विरम और फिरोजा के संबंध में कहा जाता है कि बादशाह राजा विरम को "पन्नू पहलवान" के साथ "वेनिटी" के खेल के लिए आमंत्रित किया। पराजित करने के बाद पहलवान राजकुमारी फिरोजा को विरम से प्यार हो गया और उसने इसका प्रस्ताव भेजा विवाह, जिसे वीरम ने अस्वीकार कर दिया। इस बादशाह राजा से नाराज होकर अपने सैनिकों के साथ पूरे जालौर को घेर लिया। जालोर का यह पुत्र विरम देव, हेरोस का सबसे बड़ा और पीछे छोड़ दिया गया है मीठी यादें। कान्हड़देव और उनके पुत्र वीरमदेव की जालोर में रक्षा के लिए मृत्यु हो गई. सैकड़ों राजपूत बहादुरों ने अपने देश के लिए जान दे दी है, धर्म और गौरव बहादुर महिलाओं ने बचाने के लिए खुद को आग में डाल लिया है उनका सम्मान के लीये|

अखाड़ों का स्थापना क्रम : 

यूं तो अखाड़े का मतलब ऐसी जगह से है, जहां पहलवानी का शौक रखने वाले लोग बदन पर मिट्टी लपेटकर अपनी ताकत के दांव-पेच आजमाते हैं. लेकिन धर्म की दीक्षा में पारंगत लोगों ने जब अखाड़ों की शुरुआत की, तो उनमें पहलवानी के दांव-पेच से ज्यादा धर्म के दांव-पेच सिखाए जाने लगे. खुद आदि गुरु शंकराचार्य ने कहा कि मठ, मंदिरों और श्रद्धालुओं की सुरक्षा के लिए जरूरत पड़ने पर शक्ति का इस्तेमाल किया जाना चाहिए और ये शक्ति ऐसे ही अखाड़ों के साधु-संतों से आएगी, जिन्हें शास्त्र के साथ-साथ शस्त्र का भी ज्ञान हो. और इस तरह से अखाड़ों का जन्म हुआ, जहां धर्म के दांव-पेच आजमाए जाने लगे.

शैव अखाड़े :अखाड़ों की स्थापना के क्रम की बात करें तो अखाड़ों के शास्त्रों अनुसार सन्‌ 660 में सर्वप्रथम आवाह्‍न अखाड़ा, सन्‌ 760 में अटल अखाड़ा, सन्‌ 862 में महानिर्वाणी अखाड़ा, सन्‌ 969 में आनंद अखाड़ा, सन्‌ 1017 में निरंजनी अखाड़ा और अंत में सन्‌ 1259 में जूना अखाड़े की स्थापना का उल्लेख मिलता है।

लेकिन, ये सारे उल्लेख शंकराचार्य के जन्म को 2054 में मानते हैं। जो उनका जन्मकाल 788 ईसवीं मानते हैं, उनके अनुसार अखाड़ों की स्थापना का क्रम चौदहवीं शताब्दी से प्रारंभ होता है। यही मान्यता उचित भी है।

जूना अखाड़े के इतिहास पर एक नजर 

श्रीपंचायती दशनाम् जूनादत्त कहें या जूना अखाड़ा। इस अखाड़े की स्थापना 1145 में उत्तराखंड के कर्णप्रयाग(चमोली) में हुई थी। (भगवान शंकराचार्य के जन्म के हिसाब से इसकी स्थापना विक्रम संवत् 1202 में मानी जाती है)। हरिद्वार में भी इसकी स्थापना का वर्ष यही बताया जाता है। श्रीपंचदशनाम् जूना अखाड़ा नागा साधुओं का सबसे बड़ा अखाड़ा है, जिसे भैरव अखाड़ा भी कहते हैं। इनके ईष्ट देव रुद्रावतार भगवान दत्तात्रेय हैं।

JALORE NEWS

आपके पास में भी अगर कोई इतिहास से जुड़ी जानकारी है तो हमें भेजा सकता है इस नंबर पर 

 wa.me/918239224440

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