सामवेदी श्रावणी उपाकर्म मनाया जाएगा गुरुवार को - BHINMAL NEWS
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सामवेदी श्रावणी उपाकर्म मनाया जाएगा गुरुवार को - BHINMAL NEWS
पत्रकार माणकमल भंडारी भीनमाल
भीनमाल ( 3 सितंबर 2024 ) BHINMAL NEWS श्रीदर्शन पंचांग कर्ता शास्त्री प्रवीण त्रिवेदी ने बताया कि सामवेद का श्रावणी उपाकर्म सिंह के सूर्य में और अपराह्न काल में हस्त नक्षत्र हो उस समय मनाया जाता है ।
जिस प्रकार क्षत्रियों के लिए विजयदशमी और वैश्य के लिए दीपावली का महत्व है । इस प्रकार समस्त ब्राह्मणों के लिए श्रावणी उपाकर्म का महत्व बताया गया है । जीवन में ज्ञात-अज्ञात किए हुए समस्त पापों का प्रायश्चित करने के लिए श्रावणी उपाकर्म अवश्य करना चाहिए । इस दिन ब्राह्मणों द्वारा मध्याह्न संध्या, भासादि सामवेद पाठ, ब्रह्म यज्ञ, देव पितृ मनुष्य तर्पण, विष्णु तर्पण, सूर्योपस्थान किया जाता है । गोविंदाचार्य,भारद्वाज, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, जन्मदग्नि, कश्यप, अरूंधति तर्पण, ऋषि श्राद्ध, प्लव व अरिष्टवर्ग सामपाठ किया जाता है ।
त्रिवेदी ने बताया कि उपाकर्म का अर्थ है प्रारंभ करना। उपाकरण का अर्थ है, आरंभ करने के लिए निमंत्रण या निकट लाना। यह वेदों के अध्ययन के लिए विद्यार्थियों का गुरु के पास एकत्रित होने का काल है । इसके आयोजन काल के बारे में धर्मगंथों में लिखा गया है कि जब वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं । उस समय हस्त नक्षत्र में उपाकर्म होता है। यह सत्र माघ शुक्ल प्रतिपदा या पौष पूर्णिमा तक चलता था।
श्रावणी स्नान उपाकर्म करने के शास्त्रोक्त निर्देश हेमाद्रिकल्प, स्कंद पुराण, स्मृति महार्णव, निर्णय सिंधु, धर्म सिंधु आदि योतिष व धर्म के निर्णय ग्रंथों में है । श्रावणी पर्व श्रावणी पर्व द्विजत्व की साधना को जीवन्त, प्रखर बनाने का पर्व है । जो इस पर्व के प्राण-प्रवाह के साथ जुड़ते हैं । उनका द्विजत्व-ब्राह्मणत्व जाग्रत् होता जाता है तथा वे आदिशक्ति, गुरुसत्ता के विशिष्ठ अनुदानों के प्रामाणिक पात्र बन जाते हैं । द्विजत्व की साधना को इस पर्व के साथ विशेष कारण से जोड़ा गया है । यह वह पर्व है जब ब्रह्म का 'एकोहं बहुस्यामि' का संकल्प फलित हुआ ।
शास्त्री ने बताया कि श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष है प्रायश्चित्त संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय। सर्वप्रथम प्रायश्चित्त रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प। गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी गोदुग्ध, दही, घृत, गोबर और गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नानकर वर्ष भर में हुए पाप कर्मों का प्रायश्चित्त कर जीवन को सकारात्मकता से भरते हैं। मध्याह्न संध्या, देव ऋषि मनुष्य तर्पण, स्नान के बाद सप्तऋषि अरूंधति और गोभिलाचार्य पूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं।
यज्ञोपवीत या जनेऊ आत्म संयम का संस्कार है। इस दिन जिनका यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका होता है । वह पुराना यज्ञोपवीत उतारकर नया धारण करते हैं और पुराने यज्ञोपवीत का पूजन भी करते हैं । उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है। इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घृत की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेदादि के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। इस सत्र का अवकाश समापन से होता है। इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा साढ़े पांच या साढ़े छह मास तक चलती है। वर्तमान में इस दिन ही उपाकर्म और उत्सर्ग दोनों विधान कर दिए जाते हैं। प्रतीक रूप में किया जाने वाला यह विधान हमें स्वाध्याय और सुसंस्कारों के विकास के लिए प्रेरित करता है। यह जीवन शोधन की एक अति महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक-आध्यात्मिक प्रक्रिया है । उसे पूरी गम्भीरता के साथ किया जाना चाहिए ।
श्रावणी पर्व शरीर, मन और इन्द्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व माना जाता है । इस पर्व पर की जाने वाली सभी क्रियाओं का यह मूल भाव है कि बीते समय में मनुष्य से हुए ज्ञात-अज्ञात बुरे कर्म का प्रायश्चित करना और भविष्य में अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देना। ऋषियों ने अनुभव किया कि मनुष्य स्रष्टा की अद्भुत कृति है । उसमें दिव्य शक्तियों, क्षमताओं के विकास की अनंत सँभावनाएँ हैं । सामान्य रूप से तो माँ के गर्भ से जन्म लेने के बाद भी वह पशुओं जैसी आहार, निद्रा, भय, मैथुन की संकीर्ण प्रवृत्तियों के घेरे में ही कैद रहता है । मनुष्य की अंतःचेतना जब पुष्ट होकर संकीर्णता के उस अण्डे जैसे घेरे को तोड़कर बाहर आने का पुरुषार्थ करती है ।
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