खबर जरा हटके : कुछ लेन न देना मगर रहना कबीर, कबीर साहेब की जयंती कब है जानें कबीर दास के बारे में - JALORE NEWS
![]() |
The news should be different: Do not give anything but stay Kabir, when is the birth anniversary of Kabir Saheb |
खबर जरा हटके : कुछ लेन न देना मगर रहना कबीर, कबीर दास जयंती 2023 - JALORE NEWS
संसार में आये हैं तो किसी न किसी से कुछ लेना- देना पड़ेगा। जहां लेना है वहां देना भी पड़ेगा। ऐसे में यह पंक्ति कुछ लेना न देना मगन' रहना सम्भव प्रतीत नहीं होता है। कुछ लेते हैं तो देना अवश्य पड़ेगा भले ही हम लिए गए वस्तु के समान किसी वस्तु को वापस न कर सकें परन्तु लेना का देना ही पड़ेगा। हम जीने के लिये प्राणप्रद वायु आक्सीजन लेते हैं, पर देते समय कार्बन डाय आक्साइड वायु छोड़ते हैं। भोजन-पानी लेते हैं और वापस मल-मूत्र ही करते हैं। व्यवहार में भी माता- पिता से दुलार पाते है पर देते हैं। दुत्कार |
कबीर साहेब का यह भव बिल्कुल नहीं था कि लेना- देना बन्द कर दो और मगन रहो। उनके भाव को यदि हम ग्रहण कर लें तो यह हमारे लिए वरदान होगा। उनका आशय है दूसरों का दोष मत लो, दूसरों को दुख मत दो। हम दान दें पर उस दान को किसी भी रूप में वापस पाने की इच्छा न रखें। हमारे निर्वाह से जो कुछ भी बचे उससे दूसरों की मदद करें तो यह बड़ा काम होगा। जब हम किसी को कोई वस्तु देते हैं तो उस वस्तु की गुणवत्ता पर ध्यान देना आवश्यक है। कभी-कभी ऐसी वस्तु दे दी जाती है कि घर जाते-जाते वह वस्तु टूट-फूट जाती है। दान दक्षिणा या मंदिर में भी कटे-फटे नोट या चिकनी चवन्नी चढ़ा दी जाती है। खेत में सड़ा-गला बीज डालेंगे तो कौन सा फल मिलेगा? यह विचारणीय है। किसी को कुछ दें तो श्रद्धापूर्वक दें।.
यहाँ भी न्यूज़ पढ़े :-- खबरें जरा हटके : इस दिन कोई कन्या आपको सिक्का दे तो समझ लें बदलेगी किस्मत, जाने क्या है रहस्य - JALORE NEWS https://www.jalorenews.com/2023/05/is-din-koee-kanya-aapako-sikka-de-to-samajh-len-badalegee-kismat.html
दुनिया में दो प्रकार के लोग होते हैं। एक दान देकर अपना प्रचार चाहते हैं, दूसरा वे जो दान देकर अपना नाम गुप्त रखना चाहते हैं । विभिन्न संस्थानों में कितने लोग बड़ी-बड़ी आर्थिक सहयोग करते हैं, परन्तु उन्हें अपने नाम उजागर कराने की इच्छा नहीं रहती। प्रकृति का एक विधान है जब हम किसी को कुछ निष्काम भाव से देते है, तब हमें हुई वस्तुओं से कुछ अधिक मिलता है। मांगने से कुछ नहीं मिलता नहीं मिलता। संतजन मांग नहीं करते परन्तु उन्हें मिलता बहुत है। कुछ लोग बिना बीज डाले बढिया और अधिक फल पाने की कामना रखते हैं, यह कैसे संभव होगा? जब हम अपने शक्ति और भक्ति अनुसार समाज को कुछ देते हैं तो निश्चित रूप से समाज हमें अधिक लौटाता है। अतः हमें देना सीखना होगा ।
राक्षसी देह से हुई रत्नों की उत्पत्ति!
जीवन में भाग्य का बहुत महत्व है। भाग्य कमजोर होने पर जीवन में कदम कदम पर असफलताओं का मुंह देखना पड़ता है। भाग्य को बलवान बनाने के लिए रत्न महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रत्नों में चमत्कारी शक्ति होती है जो केव विपरीत प्रभाव को कम करके ग्रह के बल को बढ़ाते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से भी रत्नों में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह माना गया है। रत्नों को सेतो स्वाभाविक उत्पत्ति माना गया है मा जानते हैं बहुमूल्य और मंगलप्रद रत्नों की उत्पत्ति सारी देह से हुई है।
यहाँ भी न्यूज़ पढ़े - : खबरें जरा हटके : जगत पिता होने पर भी ब्रह्मा जी की पूजा क्यों नहीं होती, क्या है राज - JALORE NEWS https://www.jalorenews.com/2023/05/jagat-pita-hone-par-bhee-brahma-jee-kee-pooja-kyon-nahin-hotee-kya-hai-raaj.html
जानने के लिए पढ़ें यह कहानी तन काल में बलवान राक्षस या जिसका नाम या बलासुर वह इतना बलवान या की उसने देवों पर भी विजय प्राप्त कर उन्हें अपना बना लिया था। राक्षस होने पर भी उसमें कहीं न कहीं अचाई जीवित थी। रात होने पर भी वह आध्यात्मिक और सात्यकिप्रवृत्ति का था। देवताओं ने उसकी इसी आवाई का लाभ उठाने के लिए विशाल यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में बलि देने के लिए देवताओं ने बलासुर से प्रार्थना की। बलासुर ने धार्मिक अनुशन के लिए अपने प्राण न्यौछार कर दिए। जिससे यज्ञ जैसे पवित्र कार्य के साथ-साथ देवताओं को भी राक्षस के आतंक से मुक्ति मिल गई। शुभ कार्य के लिए अपने शरीर की आहुति देने से बलासुर की तामसी काया भी शुद्ध व सत्वगुणी हो गई। उसके शव का प्रत्येक अंग रत्नों के बीजों में परिवर्तित हो गया । उसके इस परोपकार भरें दान के कारण देवता भी उसके शव के समक्ष नतमस्तक हो गया और उसे आकाशमार्ग से ले जाने लगे तो हवा की तेज रफ्तार से उसकी काया के खण्ड बिखर कर धरती के चारों ओर फैल गए और बहुमुल्य रत्नों की खानों में परिवर्तित हो गए।
कौन थे कबीर दास?
कबीर दास (1398-1518) 15वीं शताब्दी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। उनके लेखन ने हिंदू धर्म के भक्ति आंदोलन को प्रभावित किया, और उनके छंद सिख धर्म के ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब, संत गरीब दास के सतगुरु ग्रंथ साहिब और कबीर सागर में पाए जाते हैं।
संत कबीर दास भक्तिकाल के एकमात्र ऐसे कवि हैं, जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन समाज सुधार के कार्यो में लगा दिया। कबीर कर्म प्रधान कवि थे, इसका उल्लेख उनकी रचनाओं में देखने को मिलता है। कबीर का संपूर्ण जीवन समाज कल्याण एवं समाज हित में उल्लेखनीय है। कबीर, हकीकत में विश्व प्रेमी व्यक्तित्व के कवि माने जाते हैं।
माना जाता है कि कबीर का जन्म सन् 1398 ई.(लगभग), लहरतारा ताल, काशी के समक्ष हुआ था। कबीर के जन्म के विषय में बहुत से रहस्य हैं। कुछ लोगों का कहना है कि रामानंद स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक ब्राहम्णी के गर्भ से जन्म लिया था,जो की विधवा थी। कबीरदास जी की मां को भूल से रामानंद स्वामी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था। उनकी मां ने कबीरदास को लहरतारा ताल के पास फेंक दिया था। कुछ लोग कहते हैं कि कबीर जन्म से ही मुसलमान थे और बाद में उन्हें अपने गुरु रामानंद से हिन्दू धर्म का ज्ञान प्राप्त हुआ।
कबीर के माता-पिता के विषय में लोगों का कहना है कि जब दो राहगीर, नीमा और नीरु विवाह कर बनारस जा रहे थे, तब वह दोनों विश्राम के लिए लहरतारा ताल के पास रुके। उसी समय नीमा को कबीरदास जी, कमल के पुष्प में लपटे हुए मिले थे। कबीर का जन्म कृष्ण के समान माना जा सकता है। जिस प्रकार कृष्ण की जन्म देने वाली मां अलग और पालने वाली अलग थी। उसी प्रकार कबीरदास को जन्म देने वाली और पालने वाली मां अलग-अलग थी।
कबीर निरक्षर थे, उन्हें शास्त्रों का ज्ञान अपने गुरु स्वामी रामानंद द्वारा प्राप्त हुआ था। संत कबीर दास को अपने गुरु से शिक्षा लेने के लिए भी बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा। एक समय रामानंद स्वामी द्वारा सामाजिक कुरुतियों को लेकर विरोध किया जा रहा था, इस बात का पता जब कबीर को चला, तो कबीर उनसे मिलने पहुंच गए। उनके दरवाजे पर पहुंच कर कबीर ने उनसे मिलने का आग्रह किया तो उन्हें पता चला कि स्वामी जी मुसलमानों से नहीं मिलते, लेकिन कबीरदास ने हार नहीं मानी।
स्वामी जी प्रतिदिन प्रात:काल पंचगंगा घाट पर स्नान के लिए जाया करते थे। कबीरदास जी स्वामी जी से मिलने के उद्देश्य से घाट के रास्ते पर जाकर सो गए। जब स्वामी जी स्नान के लिए वहां से निकले तो उनकी खड़ाऊ कबीरदास को लग गई। स्वामी जी ने राम-राम कहकर कबीरदास जी से पुछा की वे कौन हैं? कबीरदास जी ने कहा कि वे उनके शिष्य हैं। तब स्वामी जी ने आश्चर्य से पुछा कि उन्होंने कबीरदास जी को अपना शिष्य कब बनाया। तब कबीरदास जी ने कहा कि- अभी-अभी जब उन्होंने राम ...राम कहते हुए उन्हें गुरु मंत्र दिया, तभी वे उनके शिष्य बन गए। कबीर के ऐसे वचन सुनकर स्वामी जी प्रसन्न हो गए और उन्होंने कबीरदास जी को अपना शिष्य बना लिया।
कबीर साहेब के जीवन का परिचय - Introduction to the life of Kabir Saheb
कबीर का जन्म संवत 1455 की ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को हुआ था। इसीलिए इस दिन देश भर में कबीर जयंती मनाई जाती है।कबीरदास के गृहस्थ जीवन की बात करें तो, कबीर का विवाह, वनखेड़ी बैरागी की पालिता कन्या "लोई" के साथ हुआ था। उनसे कबीरदास को दो संताने थीं, पुत्र "कमाल" और पुत्री "कमाली"। कबीरदास का पुत्र कबीर के मतों को पसंद नहीं करता था, इसका उल्लेख कबीर की रचनाओं में मिलता है। कबीर ने अपनी रचनाओं में पुत्री कमाली का जिक्र कहीं नहीं किया है।
कहा जाता है की कबीरदास द्वारा काव्यों को कभी भी लिखा नहीं गया, सिर्फ बोला गया है। उनके काव्यों को बाद में उनके शिष्यों द्वारा लिखा गया। कबीर को बचपन से ही साधु-संगति बहुत प्रिय थी, जिसका जिक्र उनकी रचनाओं में मिलता है। कबीर की रचनाओं में मुख्यत: अवधी एवं साधुक्कड़ी भाषा का समावेश मिलता है।कबीर राम भक्ति शाखा के प्रमुख कवि माने जाते हैं। उनकी साखियों में गुरु का ज्ञान एवं सभी समाज एवं भक्ति का जिक्र देखने को मिलता है।
कबीर संपूर्ण जीवन काशी में रहने के बाद, मगहर चले गए।
उनके अंतिम समय को लेकर मतांतर रहा है, लेकिन कहा जाता है कि 1518 के आसपास, मगहर में उन्होनें अपनी अंतिम सांस ली और एक विश्वप्रेमी और समाज को अपना सम्पूर्ण जीवन देने वाला दुनिया को अलविदा कह गया...।
अनुयायी
कबीरदासजी को हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही संप्रदायों में बराबर का सम्मान प्राप्त था। दोनों संप्रदाय के लोग उनके अनुयायी थे। यही कारण था कि उनकी मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया। हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से। किंतु इसी छीना-झपटी में जब उनके शव पर से चादर हट गई, तब लोगों ने वहाँ फूलों का ढेर पड़ा देखा। यह कबीरजी की ओर से दिया गया बड़ा ही सशक्त संदेश था कि इंसान को फूलों की तरह होना चाहिए- सभी धर्मों के लिए एक जैसा भाव रखने वाले, सभी को स्वीकार्य। बाद में वहाँ से आधे फूल हिन्दुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने तथा अपनी-अपनी रीति से उनका अंतिम संस्कार किया।
प्रसिद्धि
संसारभर में भारत की भूमि ही तपोभूमि (तपोवन) के नाम से विख्यात है। यहाँ अनेक संत, महात्मा और पीर-पैगम्बरों ने जन्म लिया। सभी ने भाईचारे, प्रेम और सद्भावना का संदेश दिया है। इन्हीं संतों में से एक संत कबीरदासजी भी हुए हैं। महात्मा कबीर समाज में फैले आडम्बरों के सख्त विरोधी थे। उन्होंने लोगों को एकता के सूत्र का पाठ पढ़ाया। वे लेखक और कवि थे। उनके दोहे इंसान को जीवन की नई प्रेरणा देते थे। कबीर ने जिस भाषा में लिखा, वह लोक प्रचलित तथा सरल थी। उन्होंने विधिवत शिक्षा नहीं ग्रहण की थी, इसके बावजूद वे दिव्य प्रभाव के धनी थे।[१]
युगपुरुष
अंधों की बस्ती में रोशनी बेचते कबीर वाकई अपने आने वाले समय की अमिट वाणी थे। कबीर का जन्म इतिहास के उन पलों की घटना है जब सत्य चूक गया था और लोगों को असत्य पर चलना आसान मालूम पड़ता था। अस्तित्व, अनास्तित्व से घिरा था। मृत प्राय मानव जाति एक नए अवतार की बाट जोह रही थी। ऐसे में कबीर की वाणी ने प्रस्फुटित होकर सदियों की पीड़ा को स्वर दे दिए। अपनी कथनी और करनी से मृत प्राय मानव जाति के लिए कबीर ने संजीवनी का कार्य किया।
इतिहास गवाह है, आदमी को ठोंक-पीट कर आदमी बनाने की घटना कबीर के काल में, कबीर के ही हाथों हुई। शायद तभी कबीर कवि मात्र ना होकर युगपुरुष कहलाए। 'मसि-कागद' छुए बगैर ही वह सब कह गए जो कृष्ण ने कहा, नानक ने कहा, ईसा मसीह ने कहा और मुहम्मद ने कहा। आश्चर्य की बात, अपने साक्ष्यों के प्रसार हेतु कबीर सारी उम्र किसी शास्त्र या पुराण के मोहताज नहीं रहे। न तो किसी शास्त्र विशेष पर उनका भरोसा रहा और ना ही जीवन भर स्वयं को किसी शास्त्र में बाँधा। कबीर ने समाज की दुखती रग को पहचान लिया था।
कबीर दास की मृत्यु - kabeer daas kee mrtyu
15 शताब्दी के सूफी कवि कबीर दास के बारे में ऐसा माना जाता है कि उन्होंने अपने मरने की जगह खुद से चुनी थी, मगहर, जो लखनउ शहर से 240 किमी दूरी पर स्थित है। लोगों के दिमाग से मिथक को हटाने के लिये उन्होंने ये जगह चुनी थी उन दिनों, ऐसा माना जाता था कि जिसकी भी मृत्यु मगहर में होगी वो अगले जन्म में बंदर बनेगा और साथ ही उसे स्वर्ग में जगह नहीं मिलेगी।
कबीर दास की मृत्यु काशी ( Death of Kabir Das) के बजाय मगहर में केवल इस वजह से हुयी थी क्योंकि वो वहाँ जाकर लोगों के अंधविश्वास और मिथक को तोड़ना चाहते थे। 1575 विक्रम संवत में हिन्दू कैलेंडर के अनुसार माघ शुक्ल एकादशी के वर्ष 1518 में जनवरी के महीने में मगहर में उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा। ऐसा भी माना जाता है कि जो कोई भी काशी में मरता है वो सीधे स्वर्ग में जाता है इसी वजह से मोक्ष की प्राप्ति के लिये हिन्दू लोग अपने अंतिम समय में काशी जाते है। एक मिथक को मिटाने के लिये कबीर दास की मृत्यु काशी के बाहर हुयी। इससे जुड़ा उनका एक खास कथन है कि “जो कबीरा काशी मुएतो रामे कौन निहोरा” अर्थात अगर स्वर्ग का रास्ता इतना आसान होता तो पूजा करने की जरुरत क्या है।
Kabirdas Jayanti 2023 Date : संत कबीरदास जयंती 2023 कब है
संत कबीरदास की जयंती प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ महीने की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाता है. इस साल यानी की 2023 में संत कबीरदास जी की जयंती 04 जून 2023, दिन रविवार को मनाई जायेगी.इस दिन का शुभ मुहूर्त 11:57 से 12:50 तक है और ज्येष्ठा नक्षत्र है.
इस साल यानी की 2023 में संत कबीरदास की 646वाँ जयंती मनाई जायेगी.
JALORE NEWS
खबर और विज्ञापन के लिए सम्पर्क करें
एक टिप्पणी भेजें