JALORE NEWS बेटी दिवस पर विशेष जानकारी जालोर जिले से जुड़ीं इतिहास से संबंधित है महारानी जयवंताबाई की कहानी
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JALORE NEWS बेटी दिवस पर विशेष जानकारी जालोर जिले से जुड़ीं इतिहास से संबंधित है महारानी जयवंताबाई की कहानी
जालोर ( 24 सितम्बर 2023 ) JALORE NEWS महाराणा उदय सिंह की पहली पत्नी थी , और इनके पुत्र का नाम महाराणा प्रताप था। यह राजस्थान के जालौर की एक रियासत के अखे राज सोंगरा चौहान की बेटी थी। ... जयवंता बाई उदय सिंह को राजनीतिक मामलों में सलाहें देती थी। 1572 में महाराणा उदयसिंह की मृत्यु के बाद, जगमल अपने पिता की इच्छा के अनुसार सिंहासन पर चढ़ गए। एक मा का आपकी जिंदगी में क्या भुमिका होती हैं वो महाराणा प्रताप और माता जयवंता बाई से सीखे एक अदृश्य मां होने के नातेl
जालोर क्यों प्रसिद्ध है
जालोर राजस्थान राज्य का एक ऐतिहासिक शहर है। यह राजस्थान की सुवर्ण नगरी और ग्रेनाइट सिटी के नाम से प्रसिद्ध है। यह शहर प्राचीनकाल में जाबालिपुर के नाम से जाना जाता था। जालोर जिला मुख्यालय यहाँ स्थित है। लूनी नदी की उपनदी सुकरी के दक्षिण में स्थित जालोर राजस्थान का ऐतिहासिक जिला है। पहले बहुत बड़ी रियासतों में एक थी। जालोर रियासत, चित्तौडग़ढ़ रियासत के बाद में अपना स्थान रखती थी। यह पश्चिमी राजस्थान में प्रमुख रियासत थी।
जालोर एक ऐसा शहर है जो दुनिया में सबसे अच्छे ग्रेनाइट की पेशकश के लिए प्रसिद्ध है और यहीं पर आप राजस्थान की देहाती सुंदरता में तल्लीन हो सकते हैं। तीर्थ क्षेत्र से इसके मजबूत संबंध के साथ, आप कई मंदिर पा सकते हैं और दो लोकप्रिय मंदिर रावल रतन सिंह द्वारा निर्मित सिरी मंदिर हैं, यह कलशा चाल की पहाड़ी पर 646 मीटर ऊंचा स्थित है। मंदिर तक जाने के लिए आप 3 किमी पैदल चल सकते हैं। दूसरा मंदिर सुंधा माता है जो अरावली रेंज में सुंधा पर्वत में स्थित है। 1220 मीटर ऊंचा, इसमें देवी चामुंडा देवी हैं। जालोर में, मलिक शाह की मस्जिद भी एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है और यह जालोर किले के परिसर के भीतर स्थित है।
इतिहास
प्राचीन काल में जालोर को जाबालिपुर के नाम से जाना जाता था - जिसका नाम हिंदू संत जबाली (एक विद्वान ब्राह्मण पुजारी और राजा दशरथ के सलाहकार) के नाम पर रखा गया। शहर को सुवर्णगिरी या सोंगिर, गोल्डन माउंट के नाम से भी जाना जाता था, जिस पर किला खड़ा है। यह 8वीं शताब्दी में एक समृद्ध शहर था। कुछ ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, 8वीं -9वीं शताब्दी में, प्रतिहार की एक शाखा साम्राज्य ने जबलीपुर (जालौर) पर शासन किया। राजा मान प्रतिहार जालोर में भीनमाल शासन कर रहे थे जब परमार सम्राट वाक्पति मुंज ने इस क्षेत्र पर आक्रमण किया - इस विजय के बाद इन विजित प्रदेशों को अपने परमार राजकुमारों में विभाजित किया - उनके पुत्र अरण्यराज परमार को अबू क्षेत्र, उनके पुत्र और उनके भतीजे चंदन परमार को, धारनिवराह परमार को जालोर क्षेत्र दिया गया। इससे भीनमाल पर प्रतिहार शासन लगभग 250 वर्ष का हो गया। राजा मान प्रतिहार का पुत्र देवलसिंह प्रतिहार अबू के राजा महिपाल परमार (1000-1014 ईस्वी) का समकालीन था। राजा देवलसिम्हा ने अपने देश को मुक्त करने के लिए या भीनमाल पर प्रतिहार पकड़ को फिर से स्थापित करने के लिए कई प्रयास किए, लेकिन सफल नहीं हुए। वह चार पहाडिय़ों - डोडासा, नदवाना, काला-पहाड और सुंधा से युक्त, भीनमाल के दक्षिण पश्चिम में प्रदेशों के लिए बस गए। उन्होंने लोहियाना (वर्तमान जसवंतपुरा) को अपनी राजधानी बनाया। इसलिए यह उपकुल देवल प्रतिहार बन गया। धीरे-धीरे उनके जागीर में आधुनिक जालोर जिले और उसके आसपास के 52 गाँव शामिल थे। देवल ने जालोर के चौहान कान्हाददेव के अलाउद्दीन खिलजी के प्रतिरोध में भाग लिया। लोहियाणा के ठाकुर धवलसिंह देवल ने महाराणा प्रताप को जनशक्ति की आपूर्ति की और उनकी बेटी की शादी महाराणा से की, बदले में महाराणा ने उन्हें राणा की उपाधि दी, जो इस दिन तक उनके साथ रहे।
शुरू हुआ चौहानों का शासन
10वीं शताब्दी में, जालोर पर परमारस का शासन था। 1181 में, कीर्तिपाला, अल्हाना के सबसे छोटे बेटे, नाडोल के शासक, ने परमारा वंश से जालोर पर कब्जा कर लिया। उनके बेटे समरसिम्हा ने उन्हें 1182 में सफलता दिलाई। समरसिम्हा को उदयसिम्हा ने सफल बनाया, जिन्होंने तुर्क से नाडोल और मंडोर पर कब्जा करके राज्य का विस्तार किया। उदयसिंह के शासनकाल के दौरान, जालोर दिल्ली सल्तनत की एक सहायक शाखा थी। उदयसिंह चचिगदेव और सामंतसिम्हा द्वारा सफल हुआ था। सामन्तसिंह को उनके पुत्र कान्हड़देव ने उत्तराधिकारी बनाया।
महाराणा प्रताप का ननिहाल
जालोर, महाराणा प्रताप (1572-1597) की माँ जयवंता बाई का गृहनगर था। वह अखे राज सोंगरा की बेटी थी। राठौर रतलाम के शासकों ने अपने खजाने को सुरक्षित रखने के लिए जालोर किले का इस्तेमाल किया।
गुजरात के तुर्क शासकों ने 16वीं शताब्दी में जालोर पर कुछ समय के लिए शासन किया और यह मुगल साम्राज्य का हिस्सा बन गया। 1704 में इसे मारवाड़ में बहाल कर दिया गया और 1947 में भारतीय स्वतंत्रता के तुरंत बाद तक राज्य का हिस्सा बना रहा।
महाराणा प्रताप का बचपन
माता जयवंता बाई कृष्ण भक्ति भक्त थी उन्होंने शुरू से ही कुंवर प्रताप को भगवान कृष्ण और महाभारत की युद्ध कलाओं का ज्ञान दिया।
रानी जयवंता बाई कुंवर प्रताप को बताती थी कि किस तरह उनके दादा राणा सांगा ने अपनी तलवार की धार से दिल्ली की बादशाहत को रक्त से नहलाया। किस तरह उनके परदादा बप्पा रावल का शौर्य के रक्त में नहाया कलेजा जब अरब की धरती पर गरजा तो आने वाले 400 सालों तक कोई भी विदेशी भारत की तरफ आंख उठाने की हिम्मत नहीं कर पाया।
सिसोदिया वंश के इस गौरवशाली अतीत को सुनते हुए प्रताप धीरे धीरे बड़े होने लगे। समय आने पर उनको गुरुकुल भेज दिया गया जहां प्रताप सुबह का समय गुरुकुल में बिताते दोपहर के समय में भीलो की बस्तियों में चले जाते शाम होते होते-होते प्रताप लोहारों के गावों में निकल जाते।
Maharana Pratap with bheel sena
उनको हथियार बनाने की कला सीखने में बड़ा आनंद आता था । जनता के बीच इस कदर घुल मिल जाने पर प्रताप सबके चहेते बन गए। भीलो ने उनको कीका कहकर बुलाया तो वही लोहारों ने उनको अपना राजा मानना शुरू कर दिया।
कुंवर प्रताप बचपन से ही वीर, स्वाभिमानी और हठी स्वभाव के थे। उनका शरीर सामान्य बच्चों से कई गुना मजबूत था। उन्होंने छोटी सी उम्र में ही अफ़गानीयों की बस्ती पर धावे बोलने शुरू कर दिए। मेवाड़ से होकर गुजरने वाली मुगल सेना पर भी गुलेल से हमला कर देते।
कुवर के इन कारनामों को देखते हुए सबको लगने लगा था कि बड़े होने पर वे महापराक्रमी योद्धा बनेंगे और प्रताप ही भविष्य में मेवाड़ के राणा बनेंगे।
महाराणा प्रताप का राजतिलक
उदय सिंह जी की कई रानियां भी थी जिनसे उनको कुल 33 संताने थी।
पर उदय सिंह जी की सबसे प्रिय रानी थी धीर बाई सा इनको राणा उदय सिंह अधिक महत्व देते थे इन्हीं के कहने पर राणा उदय सिंह जी ने अपने पुत्र जगमाल को मेवाड़ राज्य का भावी राजा घोषित कर दिया।
परन्तु शास्त्रों के अनुसार हमेशा बड़ा पुत्र ही राजा बनने का अधिकारी होता है, पर जिसका हृदय सागर जैसा विशाल हो उसको ऐसी बातों से फर्क नहीं पड़ता।
कुंवर प्रताप ने अपने पिता उदय सिंह के इस आदेश को मानते हुए अपने छोटे भाई जगमाल को राजगद्दी देना स्वीकार कर लिया ।
परन्तु सभी सामंत सरदार और राज्य की सामान्य जनता ने उदय सिंह के इस फैसले पर विरोध जताया। वे कुंवर प्रताप को ही अपना राजा मानते थे।
समय के साथ धीरे धीरे महाराजा उदय सिंह का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और सन 1572 आते आते-आते उनका स्वर्गवास हो गया उनके अंतिम संस्कार में कुंवर प्रताप सहित है मेवाड़ का प्रत्येक व्यक्ति आया।
और कुंवर जगमाल ऐसे मुश्किल समय में महल के अंदर अपना राज्य अभिषेक करवा रहा था तथा ऐसी दुख की घड़ी में जगमाल का अपने पिता के अंतिम दर्शन के लिए भी उपस्थित ना होने के कारण सभी सरदारों ने यही गोगुंदा की पहाड़ियों पर रक्त से मेवाड़ के असली राजा श्री कुंवर प्रताप का राज्याभिषेक कर दिया।
सरदार रावत कृष्णदास चुंडावत ने राणा प्रताप की कमर में तलवार बांधते हुए ललकार लगाई मेवाड़ मुकुट केसरी कुंवर प्रताप सिंह आज से मेवाड़ के राणा ह
यही से महाराणा प्रताप ने अपने राजपूत सरदारों के साथ कुंभलगढ़ की ओर कूच किया। राणा प्रताप के आने का समाचार सुनकर छोटा भाई जगमाल राजगढ़ी को छोड़कर भय के कारण अकबर की शरण में चला गया जिसके बाद 1573 को कुंभलगढ़ की राजगद्दी पर वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का विधिवत रूप से राजतिलक कर दिया गया।
मेवाड़ महाराणा उदयसिंह
28 फरवरी, 1572 ई. – “महाराणा उदयसिंह का देहान्त”
होली के दिन महाराणा उदयसिंह का देहान्त हुआ।महाराणा उदयसिंह ने अपनी प्रिय रानी धीरबाई भटियानी के प्रभाव में आकर अपने 9वें पुत्र कुंवर जगमाल को मेवाड़ का उत्तराधिकारी घोषित किया। मेवाड़ के रिवाज के मुताबिक उस वक्त उत्तराधिकारी को उसके पिता के दाह संस्कार में जाने की अनुमति नहीं थी।
* महाराणा उदयसिंह की एक बहिन का विवाह सांचोर के शासक जयसिंह चौहान से हुआ। महाराणा की एक और बहिन का विवाह बूंदी के राव सूरजमल हाडा से हुआ।
* महाराणा उदयसिंह के प्रति कुछ इतिहासकारों के मत यहां रखे जाते हैं, जिनमें से कुछ ने उनको कमजोर बताया है, तो कुछ ने उनकी तारीफ की है :- * मुहणौत नैणसी लिखते हैं “महाराणा उदयसिंह महाप्रतापशाली व बड़े उग्र तेज वाले शासक थे”
* कर्नल जेम्स टॉड लिखता है “राणा उदयसिंह ने चित्तौड़ छोड़कर अपने कुल की गरिमा पर कलंक लगाया”
* वीरविनोद में कविराजा श्यामलदास लिखते हैं “इन महाराणा के मिजाज़ में स्थिरता बहुत कम थी और ये अक्ल व बहादुरी में अपने बाप महाराणा सांगा के चौथे हिस्से भी नहीं थे, परन्तु विक्रमादित्य से अच्छे थे, इसलिए इनकी निन्दा नहीं हुई। कर्नल टॉड साहिब ने महाराणा उदयसिंह को कायर कहा है, पर महाराणा ने अक्सर लड़ाईयों वगैरह में बहादुरी दिखाई, इसलिए बहुत कायर भी नहीं थे”
* राणा रासौ ग्रन्थ में लिखा है “राणा उदयसिंह विशेष उदार था। कलंकित पुरुषों के लिए वह केदारेश्वर, पापियों के लिए प्रयाग तीर्थ, खूनियों की लज्जा रखने के लिए वाराणसी और मदिरापान करने वालों के लिए मंदाकिनी था। वह बादशाहों का विरोध करने वाला व पृथ्वी का भार कम करने वाला था। वह सिक्काधारी बादशाओं को उखाड़ने वाला व निर्बलों की सहायता करने वाला महान शासक था। राणा उदयसिंह, जो निर्भीक और बलशाली योद्धा था, युद्ध क्रीड़ा करते हुए शत्रुओं के मुख खंडन करने लगा। एक और समूचे जम्बू द्वीप की सेना थी और दूसरी ओर केवल खुमाण पदधारी राणा उदयसिंह, परन्तु उसने अपने खड्ग के गौरव को गिरने नहीं दिया”
* अंग्रेज इतिहासकार फ्रेडरिक महाराणा उदयसिंह के लिए लिखता है “समस्त राजपूत राजाओं में मेवाड़ का राणा उदयसिंह सबसे शक्तिशाली और सबसे अधिक ख्याति प्राप्त था।
: * निजामुद्दीन अहमद बख्शी (अकबर का दरबारी लेखक) तबकात-ए-अकबरी में लिखता है “तकरीबन हिन्दुस्तान के सारे राजा-महाराजाओं ने बादशाही मातहती कुबूल कर ली थी, पर मेवाड़ का राणा उदयसिंह मजबूत किलों और ज्यादा फौज से मगरुर होकर सरकशी (बगावत) करता था”
निष्कर्ष रुप में यह कहा जा सकता है कि महाराणा उदयसिंह न तो बहादुरी में पीछे थे और न अक्लमन्दी में।बनवीर, शम्स खां, हाजी खां, राव मालदेव, मुगलों से लड़ाईयां लड़कर महाराणा उदयसिंह ने बहादुरी का परिचय दिया।
युद्ध के समय चित्तौड़ के आसपास फसलों की बर्बादी करना, उदयपुर नगर की स्थापना करने जैसे कईं काम महाराणा ने ऐसी अक्लमंदी से किए, जो भविष्य में काफी मददगार साबित हुए। अकबर के शत्रुओं जयमल राठौड़, बाज बहादुर, रामशाह तोमर व शालिवाहन तोमर, पचायण के राव मालदेव, बंगाल के पठानों को अपने यहां शरण देकर महाराणा उदयसिंह ने हिम्मत और दरियादिली दिखाई।
एक समय था जब महाराणा उदयसिंह के पास मेवाड़ तो दूर की बात, सर छुपाने के लिए छत भी कुम्भलगढ़ में नसीब हुई और वहां से महाराणा उदयसिंह ने सम्पूर्ण मेवाड़ पर ही नहीं, आसपास के सिरोही, अजमेर जैसे नगरों पर भी अपना वर्चस्व जमाया।
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