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JALORE NEWS जालौर शहर के आसपास में कौन सा गाँव किसने बस्सा जाने किस गाँव में कितने घर

JALORE NEWS जालौर शहर के आसपास में कौन सा गाँव किसने बस्सा जाने किस गाँव में कितने घर सिन्धल राठौड़ो की अहमदाबाद के युध्द में भूमिका सिन्धल राठौड़ो के
Shravan Kumar
Shravan Kumar
17 सित॰, 2023 0 0
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jaalaur shahar ke aasapaas mein kaun sa gaanv kisane bassa jaane
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JALORE NEWS जालौर शहर के आसपास में कौन सा गाँव किसने बस्सा जाने किस गाँव में कितने घर

जालौर ( 4 सितम्बर 3023 ) जालोर जिला राजस्थान के ३३ जिलो में से एक है और ये जोधपुर मण्डल में आता है, जिले का मुख्यालय जालोर नगर में ही है, जालोर जिले में ५ उपमंडल है, २६४ ग्राम पंचायते है, पहले यहाँ ४ विधानसभा थी अब ५ हो गयी है।

जालोर जिले का क्षेत्रफल १०६४० वर्ग किलोमीटर है, और २०११ की जनगणना के अनुसार जालोर की जनसँख्या १८३०१५१ और जनसँख्या घनत्व १७२ व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है, महिला पुरुष अनुपात ९५१ महिलाये प्रति १००० पुरुषो पर है और २००१ से २०११ के बीच जनसँख्या विकास दर २६% रही है, जालोर की साक्षरता ५६% है।

जालोर भारत के पश्चिमी राज्य राजस्थान के गुजरात की सीमा से लगा हुआ जिला है, जालोर के अक्षांस और देशांतर क्रमशः २५ डिग्री ३५ मिनट उत्तर से ७२ डिग्री ६२ मिनट पूर्व तक है, जालोर की समुद्रतल से ऊंचाई १७८ मीटर है, जालोर जयपुर से ४८८ दक्षिण पश्चिम की तरफ है, और देश की राजधानी दिल्ली से भी ७५८ किलोमीटर दक्षिण पश्चिम की तरफ है

जालोर के पडोसी जिले

जालोर के उत्तर में पूर्व और उत्तर पश्चिम में पाली और बाड़मेर जिले है, पूर्व इ सिरोही जिला और दक्षिण और दक्षिण पश्चिम में गुजरात के बनासकांठा और कच्छ जिले है

पुराने काल में इसे जबलीपुर और सुवर्णगिरी के नाम से भी जाना जाता था। 12वीं शताब्दी में यह चौहान गुर्जर की राजधानी था। वर्तमान में यह जिला बाड़मेर, सिरोही, पाली और गुजरात के बनासकांथा जिले से घिरा हुआ है। जालौर का प्रमुख आकर्षण जालौर किला है लेकिन इसके अलावा भी यहां अनेक दर्शनीय स्थल हैं। जालौर राजस्थान राज्य का एक एतिहसिक शहर है। यह शहर पुराने काल मे ‘जाबालिपुर’ के नाम से जाना जाता था। जालौर जिला मुख्यालय यहाँ स्थित है। लूनी नदी के पास में स्थित जालौर राजस्थान का ऐतिहासिक जिला है

 राजस्थान के विभिन्न राजवंशो में मारवाड का राठौड़ राजवंश अपनी गौरवमयी उज्ज्वल परम्पराओं के फलस्वरूप महत्वपूर्णं स्थान रखता है । इस वशं की शाखाओं का काफी विस्तार हुआ है, जिनमें सिन्धल राठौड़ एक है ।

मारवाड़ में राठौड़ो के मूल पुरूष राव सीहा के प्रपौत्र, आस्थान के पौत्र एवं जोपसा के पुत्र सिन्धल के वंशज सिन्धल राठौड कहलाये |

इन सिन्धल राठौड़ो का प्रारम्भ में जहां जैतारण, रायपुर, भाद्राजून और सिवाणा जैसे बड़े भू-भागों पर कुछ समय के लिये आधिपत्य रहा, वहीं जालोर का सिन्धलावटी भाग इनके नाम से सुग्यात रहा है। सिन्धल राठौड़ मारवाड़ के साथ मेवाड़ राजघराने की सेवा में भी रहे थे। इनकी चारितरिक विशेषताओं में भू-खण्डों को आबाद करने, वचनपालक, स्वामीभक्ति के साथ ही साथ सासंण व डोळी के रूप में भूमीदान करने की परम्परा भी रही थी ।

पोकरन के इतिहास में लिखा मिलता है "आस्थान के ज्येष्ठ पुत्र राव धूहड़जी हुए । इन्होंने अपनी कुलदेवी चक्रेश्वरी की मूर्ति कल्याण कटक ( कन्नौज में ) से नागाणा में स्थापित की । जिससे कुलदेवी का नाम नागणेची प्रसिध्द हुआ। दूसरा कारण यह भी कहा जाता है कि कुलदेवी चक्रेश्वरी ने धूहड़जी को नाग के रूप में दर्शन दिया था, जिससे कुलदेवी का नाम नागाणेची कहलाया | इनके पुजारी राठौड़ है जो नागाणेची के सम्बन्ध से चियां राठौड़ कहलाते है । इस सन्दर्भ में एक अन्य मत है कि राव धूहड़जी स्वयं यह मूर्ति नहीं लाये बल्कि उनके समय में सारस्वत ब्राह्मण लहोड़ा लुम्ब ऋषि यह मूर्ति कन्नौज से लाये थे ।

उपर्युक्त ख्यातो से हटकर लोक मान्यताओं से ज्ञात होता है कि नागाणा गावं में नागणेचियां देवी शिला के रूप में स्वतः प्रकट हुई थी। इस सन्दर्भ में ग्रथं में लिखा मिलता है कि " राव धूहड़जी अपनी श्रध्दानुसार शक्ति रूपा देवी की पूजा करते थे । एक दिन वहाँ शिला प्रकट होने लगी । वह दृश्य देखकर वहाँ उपस्थित लोग स्तब्ध रह गये। देवी ने प्रकट होने से पूर्व कहा था कि 'हंकारो (ध्वनि) मत करना !' परन्तु पास में ही चर रहा पशुधन जब इधर उधर होने लगा तो किसी व्यक्ति ने टिचकारा कर दिया, इसलिए देवी लगभग २ फुट शिला रूप में प्रकट होकर रह गई ।

देवी के प्रकट होने के साथ ए ेसी लोकधारणा भी है कि देवी का निवास स्थान नीम के वृक्ष के नीचे होने से राठौड़ कुल के सरदार इस वृक्ष को पूजनीक भी मानते है ।

इस प्रकार स्थानीय ख्यातो एवं लोकधारणा में नागणेचियां देवी के प्रकट होने सम्बन्धी विवरण में मतभेद है । इतना अवश्य कहा जा सकता है कि नागाणा गावं माँ का प्रथम धाम रहा है ।

थे, अतः तोपों की मार की परवाह न कर राठौड़ सैनिक आगे बढ़ गये, जिससे बहुत बड़ी संख्या में सर बुलन्दखां के सैनिक मारे गये व घायल हुए | अतः बुलन्दखां ने हार स्वीकार की तथा अहमदाबाद छोड़कर चले जाना स्वीकार किया और महाराजा को फौज खर्च के लिए १ लाख नगद और बहुत सा सामान, सामान ढोने के लिए गाड़ियां आदि देना स्वीकार किया । अहमदाबाद युध्द से जुड़े विभिन्न ग्रंथों का बारीकी से अध्यन करे तो ज्ञात होता है कि सिन्धल राठौड़ो ने इस युध्द अभियान में भाग लिया बल्कि अपनी अद्भुत वीरता का परिचय देना भी प्रकट हेता है ।

इस प्रकार महाराजा अभयसिंह ने अहमदाबाद फतेह कर भारतीय इतिहास में जहां नाम कमाया वही मारवाड़ के इतिहास में भी एक उज्जवल पृष्ठ जोड़ा ।

सिन्धल राठौड़ो की अहमदाबाद के युध्द में भूमिका -

इतिहास प्रसिध्द अहमदाबाद का युध्द सन् १७३० के जून माह में (वि.सं. १७८७ आषाढ़ मास में) जोधपुर के महाराजा अभयसिंह और अहमदाबाद के सूबेदार सर बुलन्दखां के बीच हुआ था | बुलन्दख अधिक मनमानी करने लग गया था अतः बादशाहा ने यह सूबा महाराजा अभयसिंह को प्रदान कर दिया और उन्हें आदेश दिया कि वे जाकर अहमदाबाद पर कब्जा कर लें | इस के साथ ही इस कार्य हेतु उन्हें १८ लाख रू. नगद वं ५० तोपें भी दी गईं। महाराजा ने जोधपुर आकर २० हजार सवारों की सेना शामिल की और जालोर से उनके भाई बतखसिंह भी अपनी सेना सहित साथ हो गये | वीरभाण रतनू कृत राजरूपक से ज्ञात होता है कि उस समय महाराजा अभयसिंह ने मारवाड़ के विभिन्न खापं विशेष के उमरावों को भी इस अभियान में शामिल होने के लिये उत्साहित किया, जिनमें चांपावत, कूंपावत, करणोत, जैतावत, सिन्धल, ऊहड़, उदावत, धांधल, करमसोत, जैतमालोत, रूपावत, मंडलावत, भदावत, सौभावत, पातावत, देवड़ा, ईन्दा, चौहान, सोढ़ा, भायल, गौड़, हाड़ा, कच्छवाहा, सिसोदिया वं गहलोत आदि शामिल थे। इसके बाद वे सिरोही होते हुए पालनपुर पहुँचे। जब यह सूचना बुलन्दखां को मिली तो वह अहमदाबाद शहर के बाहर आकर मुकाबला करने के लिए तैयार हो गया । महाराजा ने खानपुर नामक स्थान पर मोरचे जमाये । वहाँ से अहमदाबाद शहर पर गोलाबारी प्रारम्भ की, जिससे सर बुलन्दखां पहले तो विचलीत हुआ, बाद में वह महाराजा की फौज से लडने के लिए आगे बढ़ा, दो-ढाई घण्टे तक डा भयंकर युध्द हुआ । सर बुलन्दखां के पास सैन्य-शक्ति तो इतनी अधिक नहीं थी परन्तु तोपों का जोर खूब था राठौड़ो की सेना संख्या में अधिक थी और फिर महाराजा अभयसिंह और बखतसिंह दोनों रणस्थल में मौजूद थे, अतः तोपों की मार की परवाह न कर राठौड़ सैनिक आगे बढ़ गये, जिससे बहुत बड़ी संख्या में सर बुलन्दखां के सैनिक केर सिंह के तीन पुत्र - भीख सिंह, लादु सिंह, मोहन सिंह देवी सिंह के दो पुत्र थे - जोग सिंह, बिंजराज सिंह हर सिंह के एक पुत्र-जोर सिंह

अमर सिंह के छ: पुत्र - समर्थ सिंह, मान सिंह, जवाहर सिंह, सुलतान सिंह, धोकल सिंह, मंगल सिंह

विरद सिंह के दो पुत्र - राम सिंह, नेन सिंह रतन सिंह के पाँच पुत्र - प्रताप सिंह, कान सिंह, भुर सिंह, भारत सिंह, रुप सिंह

मादु सिंह के एक पुत्र - आइदान सिंह वाँक सिंह के एक पुत्र- किशोर सिंह १,

मानसिंह के तीन पुत्र मोती सिंह, जवाहर सिंह, गंगा सिंह - लक्ष्मण सिंह के तीन पुत्र मोती सिंह, मग सिंह, तेज सिंह - लादु सिंह के चार पुत्र - भवानी सिंह, किशन सिंह, छोटू सिंह

जोग सिंह के तीन पुत्र - आणंद सिंह, वाग सिंह, उदय सिंह

जराज सिंह के एक पुत्र - हेम सिंह आइदान सिंह के तीन पुत्र- किशोर सिंह, हमीर सिंह, भैरू सिंह

मोती सिंह के एक पुत्र - दुर्ग सिंह

मग सिंह के तीन पुत्र - नारायण सिंह, जेटू सिंह, महेंद्र सिंह तेज सिंह के तीन पुत्र - दिप सिंह, छेल सिंह, छोटू सिंह

आणंद सिंह के एक पुत्र - पदम सिंह हेम सिंह के चार पुत्र - मुल सिंह, मोहन सिंह, भुर सिंह,

उदय सिंह के दो पुत्र - नरपत सिंह, चैन सिंह

पुखराज सिंह किशोर सिंह के दो पुत्र - भंवर सिंह, गणपत सिंह हमीर सिंह के दो पुत्र - शेर सिंह, राजु सिंह भैरू सिंह के दो पुत्र - मुल सिंह, रघुनाथ सिंह दुर्गसिंह के दो पुत्र - बादर सिंह, जेटू सिंह जय श्री माता जी की हुकूम

सिन्धल चांपा की वीरता और जगा जाडेचा का कत्ल :-

ई.सं. १५८३ में नवाब खानखाना गुजरात का सुबा प्राप्त हुआ था, उस समय जगा जाडेचा का अहमदाबाद में आतंक था। वह लूटमार किया करता था । नवाब खानखाना ने अपने स्तर पर उसका खात्मा करने का बहुत प्रयास किया लेकिन उसे सफलता नहीं मिली, अंततः सिन्धल राठौड़ो और मेडतिया राठौड़ो के सामुहिक प्रयासों से उसका सफाया हुआ । एक दिन मेड़तिया विट्ठलदास और सिन्धल चांपा शिकार खेलते हुए साबरमती नदी की ओर चले गये, जहां उनकी जगा जाडेचा से मुठभेड़ हो गयी तब सिन्धल चांपा व विट्ठलदास ने मिलकर जगा को मौत के घाट उतार दिया । उसके १० से १५ आदमी भी इस लड़ाई में मारे गये। जब इसकी सुचना खानखाना को मिली तो वह बड़ा प्रसन्न हुआ और उन्हें उपहार देने लगा लेकिन विट्ठलदास आदि ने सुरताण एवं केशवदास को मेड़ता दिलवाने की मांग की इस पर खानखाना ने बादशाह को अनुरोध कर इनको मेड़ता का अधिकार दिलवाया । 'शिवकरण पंचोली की बही' से ज्ञात होता है कि सिन्धल चांपा को मेड़तिया सुरता कि ओर लांबिया का पट्टा प्राप्त हुआ था | सिन्ध चांपा का दग्ध स्थल लांबिया-कोटड़ी में स्थित है । इस पवित्र स्थान का सम्मान आस-पास के गांवो के लोगों में व्याप्त है। जहां चांपा सिन्धल का स्मारक बना हुआ है । वहाँ नवविवाहित दुल्हा-दुल्हन आते है और नतमस्तक होते हैं। यह परम्परा सदियों से चली आ रही है। उपर्युक्त घटना में सिन्धल चांपा जो करमसी का पुत्र था उसका महत्वपूर्ण स्थान रहा था, वह मेड़तिया विट्ठलदास के समान ही वीर व पुरूषार्थ से पूर्ण था |

खानपान :-

अनाज में मुख्यत: बाजरे, मोठ और गेहूं का उपयोग किया जाता था ।

वेश-भूषा :-

लोग देशी रेजे का कपड़ा का उपयोग करते थे और बगली बंदी बण्डी, अंगरखी, धोती, एक लागं एवं दो लागं तथा सिर पर पोतिया (साफा) बांधते थे, जो देशी और विदेशी सूत के बने थे I

जलपूर्ति :-

गांवो में जलपूर्ति के लिए विशेष ध्यान दिया गया इसके जलाशयों का निर्माण किया गया। इसके अतिरिक्त कुएं भी खुदवाये गये । तालाबों में वर्षा का पानी ४ से ६ माह तक रहता था ।

फसलें :-

फसलें दो प्रकार की होती थी, रबी और खरीफ । वर्षा होंने पर जहां बाजरा, मूंग, मोठ, तिल, ग्वार होंता वहीं सर्दी के समय गेहूँ, चने, सरसों आदि फसलें बोई जाती, जिसकी सिंचाई कुएं से की जाती थी और खेत में वर्षा का पानी जमा होने पर वहां खेती की जाती जिसे 'सेवज' कहते थे ।

अभिवादन :-

अभिवादन करते समय सिन्धल राठौड़ विशेषत: जय माताजी, जय रुघनाथजी बोलते थे। वे देवी शक्ति को विशेष महत्व देते थे ।

मुद्रा, माप-तौल :- उस समय विजैशाही और अखैशाही सिक्के प्रचलन में थे । अखैशाही का तौल २० पैसे ढब्बु और विजेशाही का तौल २७ पैसे था | अनाज को पायली से मापते थे । ३२ पायली बराबर १ मन होता था ।

कर :-

जागीदार को अपने गांव की रेख और अन्य कर की राशि जमा करानी पड़ती थी जैसे नारवणां गांव की रेख ३२ ₹. विजेशाही थे । इसके अलावा खाड़लाकड़ के १६₹., सवा रूपया कानूगे के और ६ ₹. घरबाव के भीनमाल हुकूमत कार्यालय में जमा कराने होतें थे ।

बोली :-

लोग राजस्थानी बोली में वार्तालाप करते जिसमें क्षेत्र विशेष का प्रभाव रहता था | जालेर क्षेत्र के जालोरी, गोढ़वाड़ क्षेत्र के गोढ़वाड़ी बोली बोलते थे ।

रहन-सहन :-

लोगों का रहन-सहन साधारण था और वे कच्चे मकानों मे निवास करते थे तथापि गांव के ठाकर और अन्य भाई-बन्धुओं के पक्के मकान होते थे । कतिपय प्रतिष्ठित ठिकानों में सिन्ध राठौड़ की पोले बैठक के लिए थी ।

मेला :-

कवराड़ा जैसे बड़े गांव में बाबा रामदेव का मेला भाद्रपद सुदि ११ और माघ सुदि ११ के दिन लगता था ।

सिन्धल राठौड़ो के गाँवो का सर्वेक्षण

२०वीं शताब्दी के प्रारंभ में अर्थात् १०० वर्ष पूर्व इनकी जागीर गांवों की स्थित कैसी थी, उनके खान-पान, वेशभूषा सामाजिक मान्यताओं, धार्मिक आस्थाओं, खेती-बाड़ी आदि उद्धोग-धन्धों के बारे में मैने तत्कालीन गांवो से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर यहां विवेचना प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

गांवों की संरचना :- गांव मे अलग-अलग व्यवसाय से जूड़े जाति के लोगों को बसाया जाता था। मुख्य रूप से खेती करने वाले लोगों की आवश्यकता होती थी। इसके बाद वस्तुओं की पूर्ति करने वाले महाजनों की गणना की गई है । कवलां जैसे बड़े गांव में ३३२ घरों की बस्ती थी, जिसमे कृषकों के १६० घर तथा ९ घर महाजनों के और शेष घर अन्य जातियों के लोगों के थे । नारणावास ऐसा गांव था जिसमें रेबारियों के ५९ घर थे । कवराड़ा में महाजनों के ९१ घरों की बस्ती उनकी अच्छी स्थिति का सूचक है । चवरला जैसे गांव में अधिकांश राजपूतों की बस्ती थी | खाराबेरा पुरोहितों के गांव में पुरोहित ४६, सुथार ४, तेली ४, साध-३, सुनार १, गुसाई २, मेघवाल १२, राईका ६, कुम्हार ८, सरगरा ५ और लोहार का केवल १ घर था | दूसरे गाँवों में भी इस जाति के लोग रहे होगें परन्तु उनकी गणना कृषकों में करली गई है ।

धर्म और मन्दिर :- सिन्धल राठौड़, वैष्णव और शैव धर्म को मानते थे और जगन्नाथ व जोगमाया का ईष्ट रखते वही ओसवाल जैन धर्म में विश्वास करते थे | सिन्धल राठौड़ो की धार्मिक आस्थाओं के परिणामस्वरूप गांव में जगन्नाथ (ठाकुरजी, सांवलांजजी) महादेव और जोगमाया के मन्दिरों का निर्माण भी हुआ । इनकी पूजा-अर्चना की व्यवस्था भी सुचारू रूप से की गई थी | सिन्धल राठौड़ लम्बे समय तक मेवाड़ में रहे इसलिए शिव-पूजा का प्रभाव भी उन पर पड़ा है।

 सिन्धल राठौड़ो के मुख्य बड़े गांव जिन्हें सोलह (१६) सिलवाटी के नाम से भी जाना जाता हैं :-

१. सवरलड़ा

२. कवला

३. कवराड़ा, 

४. वलदरा

५. पाचोटा

६. तरवाड़ा

८. शखंवाली

७ चुण्डा

९. आकोरा पादर

१०. उकरड़ा

११. रोडला

१२. थुबां

१३. मानपुरा

१४. गोलीया

१५. केराड़

१६. सुगालीया

लाम्बड़ा :-

लाम्बड़ा के सिन्धल राठौड़ भाद्राजून के वीरां सिन्धल के वंशज है । राव भाट की बहियों से ज्ञात होता है कि भाद्राजून हाथ से निकल जावे के पश्चात उक्त सिन्धल राठौड़ धुन्दाड़ा अनन्तर लाम्बड़ा गांव आये थे | वीरां सिन्धल के पश्चात जोगसिंह, मेघराजसिंह, खंगारसिंह, सुरेन्द्रसिंह, केसरीसिंह, केरसिंह, संग्रामसिंह, अजबसिंह, बख्तावरसिंह, लालसिंह, जुजारसिंह, सोहनसिंह और भगवतसिंह हुए। निःसन्देह सिन्धल राठौड़ भाद्राजून पर लम्बे समय तक कायम रहे उनकी गौरवं गाथाएं आज भी उस इलाके में लोगो की जिव्हा पर है लेकिन इतिहास में जिस रूप में उनके यश का बखान किया जाना था वह नहीं हो पाया, जिससे उनके वैभव और शौर्य की गाथाएं आज कोहरे से ढकी हमारे सामने है परन्तुं उसे बिना आधार के पूर्ण कर लिखा जाना भी इतिहास सम्मत नहीं है। यह विडम्बना ही है कि न जाने कितने ही क्षत्रिय योध्दाओं ने अपने वतन, अपने स्वाभिमान की रक्षार्थ हंसते-हंसते प्राण न्योछावर किये, लेकिन इतिहास में वे ही आ सके जिनके वंशजों ने गौरव गाथाओं को सहेज कर रखा ।










भाद्राजून :-

सिन्धल राठौड़ो के महत्वपूर्ण ठिकानो में से एक ठिकाना भाद्राजून लम्बे समय तक सिन्धल राठौड़ो के आधिपत्य में रहा ।

भाद्राजून के सिन्धल राठौड़ो का वंशक्रम देखने पर ज्ञात होता है कि इनका भाद्राजून पर सिन्धल मांडण तक वर्चस्व कायम था | राठौड़ो के मूल पुरूष राव सीहा के वंशक्रम में आस्थान- जोपसा-सिन्धल-चाहड़दे- काकुल-उदयसिंह-आसल-नेणोजी भीव-करण हुए । सिन्धल के पश्चात - क्रमशः चाहड़दे से लेकर करण भाद्राजून का उपभोग करते रहे थे। कविराज संग्रह से प्राप्त दस्तावेजो में यह लिखा मिलता है कि सिन्धल राठौड़ करण के समय यह ठिकाना विरान ही था । करण ने करणुगांव भी बसाया था जिसे उन्होने अपने पुत पदमसिंह को प्रदान किया था । पदमसिंह इस गांव का उपभोग कम समय ही कर पाये वह गायों के रक्षार्थ में लोगो से लडते हुए काम आये ।

काला रो पादर (परगना जालोर)

१. गांव की कुल बस्ती १० घरों की हैं, जिसमें कृषको के ९ घर है जो राजपुत हैं ।

२. गांव की धानमण्डी जालोर हैं, जो ८ कोस पर हैं।

३. इस गांव काला चौधरी ने बसाया था, जिससे इस गांव का नाम काला रो पादर पड़ा ।

४. गांव में १२ महींने पानी रहता हैं, जो पड़ोस के दुसरे गांव से लाया जाता हैं ।

५. गांव में कोई नाड़ी या तालाब नहीं हैं ।

६. गांव सासंण का हैं ।

७. यहा का जागीरदार जात का चारण हैं।

८. इस गांव की भोम सिंधल राठौड़ो की हैं, यह जमीन माफी की नहीं हैं ।

९. गांव में १ मामाजी का औरण हैं ।

१०. सिक्का रूपया अखैशाही और तोल 27 पैसे ढबु का सैर हैं ।

भागल सिन्धला ( परगना जालोर)

१. इस गांव में कुल ७० घरों की बस्ती हैं, गांव में राजपुत और रेबारी अधिकांशतः हैं ।

२. धर्म शिव और ईष्ट जोगमाया का हैं।

३. धानमण्डी जालोर में है, जो ३ कोस दूर स्थित हैं ।

४. पेयजल हेतु १ कुआं है, जिस पर गांव की पीछ १२ महीने रहती हैं । बेरा पक्का व मीठे पानी का हैं, जो १०० हाथ गहरा हैं।

५. गांव के जागीरदार सिंधल राठौड़ हैं, गांव में २ हिस्से हैं ।

६. जालोरी भाषा बोलते हैं ।

७. गांव में एक औरण मामाजी का हैं, जहां बैर और कैर की झाड़ियां लगी हैं ।

८. यहां के जागीरदार रेख बाब के ₹ जोधपुर राज्य में आधो-आध जमा करते हैं, और एक जागीरदार शामिल खेड़े के भरते हैं ।

९. सिक्का रूपया अखैशाही का और तोल २५ पैसे भर सैर का है ।

खाराबेरा पुरोहितां ( परगना जोधपुर )

१. गांव में कुल घरों की बस्ती १५५ हैं, जिसमें सें १२ घर महाजन के, कृषको के २७, पुरोहितों के ४६, सुथार के ४, तेली के ४, साद के ३, सुनार का १, गुसाईया के २, मेघवाल के १२, राईका के ६, कुम्हार के ८, सरगरा के ५, लुहार का १ घर हैं। गांव में ४ वास हैं, जिसमें से ३ पुरोहितों के और १ वास ठाकुर जालमसिंह ठि. पाचोंटा के पट्टे हैं।

२. गांव का धर्म शिव और ईष्ट माताजी का है, और महाजन, ओसवाल के जैन धर्म हैं ।

३. गांव में दो मन्दिर ठाकुरजी के हैं, एक ठाकुरजी श्री सांवलाजी और दुसरा ठाकुरजी श्री रामचन्द्रजी का है । वि.सं. १८९० में इनका निर्माण हुआ था |

४. यह गांव वि.सं. १९१५ में रायमल ने बसाया था, और बस्ती वि.सं. १९२५ के वर्ष में बसी थी ।

५. इस गांव की जमीन खारी हैं, गांव की बसावट जब हुई उस समय एक कुआं खुदवाया गया था । जिसमें पानी खारा निकला, जिस पर इस गांव का नाम खाराबेरा पड़ा |

६. गांव की उगवण दिशा में १ जलाशय और आथुणी तरफ १ जलाशय है, जिसमें पानी १० महीने रहता है। गांव में कोई बेरा नहीं हैं ।

७. गांव का बरसाती नाला (बाला) उगणी तरफ की सीमा में गांव के नजदीक चलता हैं और आथुणी तरफ जाता है । इसको खेणबालों कहते हैं ।

८. बोली मारवाड़ी हैं।

९. गांव की सीमा के उगवन की तरफ एक औरण है जो मल्लीनाथजी के नाम से सुज्ञात हैं ।

१०. इस गांव के ३ हिस्से सासंण के हैं, जिससे राज्य के कोई लाग इत्यादी नहीं लगती और १ हिस्सा पांचोटा ठाकुर का है । वे हुकुमत में लाग भरते हैं, जिससे सेरीणा प्रतिवर्ष चौधरबाब भरते हैं ।

११. इस गांव में तोल १४) टका भर का सैर होता हैं, और धान के माप की पायली जोधपुर के तोल की सैर होती है । ३२ पायली का मण होता है, और सिक्का विजेशाही रूपया चलता है।

१२. इस गांव में वि.सं. १८७९ में सिन्धल छत्रसिंह का प्रभुत्व स्थापित हुआ था | अनन्तर वि.सं. १८८० में तेजसिंह छत्रसिंघोत, के पश्चात वि.सं. १९०८ में सिन्धल अजीतसिंह तेजसिंघोत के पट्टे में यह गांव रहा था ।

चवरला ( परगना जसवन्तपुरा )

१. गांव की कुल बस्ती १६ घरों की हैं। कृषको के घर १२ हैं, जो अधिकांश राजपुत हैं ।

२. गांव के लोगों का धर्म विष्णु और ईष्ट जोगमाया का हैं ।

३. धानमण्डी पाली में है, जो १२ कोस की स्थिती पर दुर हैं।

४. गांव में शिव का थान हैं, जिससे दांव का नाम चवरला दिया गया |

५. गांव में पेयजल हेतु एक जलाशय हैं, जिस पर गांव की पीछ ७ महींने रहती हैं। इसके अलावा एक कच्चा कुआ भी हैं, जो मीठे पानी का हैं जिसकी गहराई ४५ हाथ हैं । इसके अतिरिक्त २ पक्के कुएं भी हैं ।

६. यह गांव जागीरी का हैं, यहा के जागीरदार सिंधल राठौड़ रतनसिंह हैं

७. बोली मारवाड़ी है ।

८. इस गांव की पट्टी जालोर और वाटी सिंधलावटी हैं।

९. गांव में एक पहाड़ी है, जिसका नाम रातड़िया हैं ।

१०. गांव की रेख के ₹ शामिल पट्टे कवलें के भरते हैं ।

११. सिक्का ₹ विजैशाही और तोल साढ़े १७ पैसे का भरते हैं।

अजीतपुरा (परगना जालोर)

१. गांव में कुल घरों की बस्ती ५७ हैं, जिसमें ५० घर कृषको के हैं । गांव में ज्यादातर राजपुत और पटेल हैं।

२. गांव के लोगों का धर्म शिव और ईष्ट माताजी का हैं।

३. वि.सं. १८५६ में जालोर के किले महाराजा मानसिंहजी आये तब जोधपुर से महाराजा भींवसिंह फौज लेकर उन रर चढ़ाई की तब उनसें यहा लड़ाई हुई थी ।

४. वि.सं. १९२५ में गांव की स्थापना हुई थी ।

. गांव में कुल ८ कुएं है, जो कच्ची ईंटों से बने हुए हैं।

६. गांव की सीमा में १ बरसाती नाला है, जिसका नाम खेरवा हैं ।

७. यह गांव जागीरी का हैं, जो सिंधल समरथसिंह के पट्टे का हैं।

८. बोली मारवाड़ी हैं ।

९. हुकुमत में लाग, खिचड़ी कर जो १२ महीने का ४० ₹ हैं, वह सावण माह में भरते हैं ।

१०. सिक्का अखैशाही का चलता हैं ।

चवरला (परगना जसवन्तपुरा )

१. गांव की कुल बस्ती १६ घरों की हैं। कृषको के घर १२ हैं, जो अधिकांश राजपुत हैं ।

२. गांव के लोगों का धर्म विष्णु और ईष्ट जोगमाया का हैं ।

३. धानमण्डी पाली में है, जो १२ कोस की स्थिती पर दुर हैं।

४. गांव में शिव का थान हैं, जिससे दांव का नाम चवरला दिया गया |

५. गांव में पेयजल हेतु एक जलाशय हैं, जिस पर गांव की पीछ ७ महींने रहती हैं । इसके अलावा एक कच्चा कुआ भी हैं, जो मीठे पानी का हैं जिसकी गहराई ४५ हाथ हैं | इसके अतिरिक्त २ पक्के कुएं भी हैं ।

६. यह गांव जागीरी का हैं, यहा के जागीरदार सिंधल राठौड़ रतनसिंह हैं

७. बोली मारवाड़ी है ।

८. इस गांव की पट्टी जालोर और वाटी सिंधलावटी हैं।

९. गांव में एक पहाड़ी है, जिसका नाम रातड़िया हैं ।

१०. गांव की रेख के ₹ शामिल पट्टे कवलें के भरते हैं ।

११. सिक्का ₹ विजैशाही और तोल साढ़े १७ पैसे का भरते हैं ।

चुड़ा परगना (जालोर)

१. चुण्ड़ा गांव में घरों की बस्ती कुल ४०० हैं, जिसमें ३२ घर सिंधल राठौड़ो के हैं तथा रजपुत, रावणा रजपुत, पुरोहीत, देवासी, कुम्हार, गोस्वामी, वैष्णव, सोनी, नाई, शर्मा, ब्राह्मण, मेघवाल, मुस्लिम, मीणा, भील, ढोली, सरगड़ा, हरीजन व जोगी आदी जाती के लोग रहते हैं, जो सभी अपने रिती-रीवाज एंव भाई चारे से मील झुलकर रहतें हैं।

२. गांव के बहार मां शुभद्रा एंव तालाब के पास एक शीव का पुराना मन्दिर है जो कि गांव वालों के द्वारा बनाया गया हैं। एंव बायोसा बावसी का स्थान स्थित है जहा लोग दुर दुर से दर्शन हेतु आते हैं। इसके उपरांत ई.सं. १९५६ मे एक विशाल जैन मन्दिर बनाया गया हैं। गांव के बीच ठाकुरजी, शनीदेव वं हनुमानजी का मन्दिर हैं। गांव के द्वार पर रामदेवजी का मन्दिर हैं। तथा गांव के बीच एक गणेशजी का मन्दिर है जिसकी प्रतिठा बाकी हैं। गांव में एक बड़ा तालाब हैं जिसमे गांव की २ मीठे पानी की बेरी हैं तालाब कि पाल पे सिंधल राठौड़ो के पुर्वज (जुजार), बीराजमान हैं।

३. गांव में लगभग ४० वर्ष पुर्व जैन जाति के लोग रहते थे । जो अभी तखतगढ़ में रहते हैं वह जगह चुण्डा की शेरी के नाम से जानी जाती हैं।

४. गांव का इतिहास ४०० वर्ष पुराना हैं । इसका पाट स्थान कवलां हैं।

५. गांव के बहार एक कुआं स्थित है जो डोला के नाम से जाना जाता हैं, कहते हैं कि कुआं राजा सागर के द्वारा बनाया गया हैं । इसी कुएं के पीछे चुण्ड़ा गांव बसा था | कुएं के जागीदार ठा. मानसिंह जी हैं जो कि वर्तमान में चुण्ड़ा गांव के ठाकरसा हैं जो कि सिंधल राठौड़ हैं।

६. गांव के लोग कृषि एंव शहरी व्यवसाय पर नीर्भर हैं। एंव चुण्ड़ा गांव का मावा सुप्रसिध्द हैं।

७. चुण्ड़ा गांव विभिन्न गांवो से जुड़ा हुआ है जिसमें किशनगढ़, मोहिवाड़ा, मुलेवा, निम्बला वं संखवाली का समावेश होता हैं ।

८. गांव में शिक्षा हेतु उच्च माध्यमिक विध्यालय हैं। एंव गांव से १९ किलो मी. दुर आहोर शहर है। गांव से कुछ दुर जालोर जोधपुर हाई-वे हैं

८. गांव में शिक्षा हेतु उच्च माध्यमिक विध्यालय हैं। एंव गांव से १९ किलो मी. दुर आहोर शहर है। गांव से कुछ दुर जालोर जोधपुर हाई-वे हैं

९. गांव के लोग जालोरी भाषा का प्रयोग करते हैं ।

१०. गांव से कुछ दुर महेषपुरा बाधं है ।

११. गांव के माताजी मन्दिर के पास एक खेतलाजी का स्थान हैं जो कि खेतलाजी नाड़ा के नाम से जाना जाता हैं, वहां भादरवां सुद पांचम को देवासी जाती के लोग गुजरात के कच्छ जीले से दर्शन हेतु आते हैं।

१२. चुण्ड़ा गांव की भूमी पर एसे महान संत हुए हैं जो आज वर्तमान समय में मोहिवाड़ा मठ एवं धुमड़ा के महंत हैं। जो कि गांव के देवासी कुल से हैं । एवं १००८ राज भारतीजी के नाम से जाने जाते हैं।

आकोरा पादर ( परगना जालोर)

१. कुल घरों की बस्ती ६३ हैं, जिसमें से कृषको के ४२ घर है, ज्यादातर कृषक कुम्हार जाति के हैं ।

२. धर्म विष्णु और ईष्ट जोगमाया का हैं ।

३. गांव की धानमण्डी जालोर है, जो कि ११ कोस दूर हैं ।

४. पेयजल हेतु १ जलाशय हैं, जिसमें ४ महीने पानी रहता है । इसके अतिरिक्त १ पीछ का पक्का ३५ हाथ गहरा कुआं हैं, जो मीठे पानी का हैं

५. इसके अतिरिक्त ३ कुएं है, जिनसे साख होती हैं ।

६. यह गांव जागीरी का हैं, जिनके भायप और जिलायत संखवाली हैं।

७. गांव के ठाकुर नाथुसिंह और रायसिंह हैं, जो सिन्धल राठौड़ हैं ।

८. यहां के जागीरदार खिचड़ी लाग ५३ ||) अखैशाही देते हैं, और महामन्दिर व सिरेमन्दिर, जालोर में १-१ ₹ जमा कराते हैं ।

९. सिक्का रूपया अखैशाही और तोल २| पैसे भरते हैं ।

सिन्धल राठौड़ो के गाँवो का सर्वेक्षण

२०वीं शताब्दी के प्रारंभ में अर्थात् १०० वर्ष पूर्व इनकी जागीर गांवों की स्थित कैसी थी, उनके खान-पान, वेशभूषा सामाजिक मान्यताओं, धार्मिक आस्थाओं, खेती-बाड़ी आदि उद्धोग-धन्धों के बारे में मैने तत्कालीन गांवो से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर यहां विवेचना प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

गांवों की संरचना :- गांव मे अलग-अलग व्यवसाय से जूड़े जाति के लोगों को बसाया जाता था। मुख्य रूप से खेती करने वाले लोगों की आवश्यकता होती थी। इसके बाद वस्तुओं की पूर्ति करने वाले महाजनों की गणना की गई है । कवलां जैसे बड़े गांव में ३३२ घरों की बस्ती थी, जिसमे कृषकों के १६० घर तथा ९ घर महाजनों के और शेष घर अन्य जातियों के लोगों के थे । नारणावास ऐसा गांव था जिसमें रेबारियों के ५९ घर थे । कवराड़ा में महाजनों के ९१ घरों की बस्ती उनकी अच्छी स्थिति का सूचक है । चवरला जैसे गांव में अधिकांश राजपूतों की बस्ती थी | खाराबेरा पुरोहितों के गांव में पुरोहित ४६, सुथार ४, तेली ४, साध-३, सुनार १, गुसाई २, मेघवाल १२, राईका ६, कुम्हार ८, सरगरा ५ और लोहार का केवल १ घर था | दूसरे गाँवों में भी इस जाति के लोग रहे होगें परन्तु उनकी गणना कृषकों में करली गई है ।

धर्म और मन्दिर :- सिन्धल राठौड़, वैष्णव और शैव धर्म को मानते थे और जगन्नाथ व जोगमाया का ईष्ट रखते वही ओसवाल जैन धर्म में विश्वास करते थे | सिन्धल राठौड़ो की धार्मिक आस्थाओं के परिणामस्वरूप गांव में जगन्नाथ (ठाकुरजी, सांवलांजजी) महादेव और जोगमाया के मन्दिरों का निर्माण भी हुआ । इनकी पूजा-अर्चना की व्यवस्था भी सुचारू रूप से की गई थी | सिन्धल राठौड़ लम्बे समय तक मेवाड़ में रहे इसलिए शिव-पूजा का प्रभाव भी उन पर पड़ा है।

काबां (परगना जालोर)

१. इस गांव में कुल ११६ घर है | जिसमें महाजनों के ९ और कृषको के १०० घर है | वि.सं. १९२५ में इस गांव कि स्थापना हुई थी ।

२. गांव के लोगों का धर्म शिव का है और ईष्ट माताजी का है।

३. गांव के नामकरण के सम्बन्ध में इस गांव की नाड़ी पर स्थित कांबेश्वर महादेव के मन्दिर से प्रेरित होकर काबां नाम दिया गया ।

४. जलपूर्ति हेतु एक छोटा जलाशय है जिसमें ४ महीने पानी रहता है।

यह पानी ३० हाथ नीचे है, कुएं की संख्या ४ है, जो पक्के हैं।

५. यह गांव भाद्राजून ठिकाने का ताजिमी गांव रहा हैं, और जागीदार की फली रत्नसिंघोत हैं। जो जाति के जोधा राठौड़ हैं।

६. गांव में डोली की जमीन हैं, जो जाति का पुरोहित और स्वामी है।

७. यह गांव जोधा, धवेचा, जैतमालोत और सिंधल राठौड़ के पट्टे में समय समय पर रहा है । वि.सं. १८६० में उदयसिंह हिम्मतसिंघोत को १ हजार ₹ की रेख से यह गांव पट्टे में मिला था । जो १८६१ में जब्त होकर जालमसिंह रत्नसिंघोत जोधा के नाम कर दिया गया था। यह गांव कुछ समय के लिये बाला राजपुतों के पट्टे में भी रहा था |

केराल (परगना जालोर)

१. कुल घरों की बस्ती ११ हैं, ज्यादातर कृषक है । राजपुतों के ७ घर हैं । २. गांव के लोगों का धर्म विष्णु और ईष्ट जोगमाया है ।

३. इस गांव की धानमण्डी पाली है, जो १२ कोस पर स्थित है ।

४. गांव का नामकरण, गांव की सीमा में केर की झाड़ अधिक होने से उनके नाम पर गांव का नाम केराल पड़ा है ।

५. यह गांव जागीरी का है जिनके भायप कंवला ठिकाने वाले है।

६. गांव के जागीरदार सिंधल राठौड़ छत्रसिंह है ।

७. यहा के लोगो बाली की भाषा बोलते है ।

८. इस गांव की पट्टी जालोर और वाटी सिंधलावाटी है।

९. यहां के जागीरदार अपनी रेख के ₹ कंवला ठिकाने में भरते है । १०. सिक्का रूपया विजेशाही का है, और तोल साढे २७ पैसा है।

कवराड़ा (परगना जालोर)

१. इस गांव में कुल घरो की बस्ती २९१ हैं, जिसमें महाजनों के घर ९१ हैं, और कृषको के घर १५० हैं । कृषको की जाति महाजन है ।

२. धर्म में शिव और ईष्ट जोगमाया और हींगलाज का रखते है । ३. गांव में तीन मन्दिर है जिनमें एक जानकी दुसरा ठाकुरजी और तीसरा रामदेवजी का हैं ।

४. गांव की धान मण्डी पाली है जो १२ कोस पर है ।

५. गांव में बाबा रामदेव का मेला वर्ष में २ बार लगता है । प्रथम मेला भादवा सुद ११ और दुसरा माह सुद ११ को भरता है ।

६. इस गांव का नाम कवराड़ा, कवलां की सीमा में बसने के कारण पड़ा था ।

७. गांव स्थित जलाशय में पानी ४ माह रहता है, गांव में २ कुएं पीछ के है। जिसमें से एक पशु-पक्षी के लिए और एक गांव वालों के पीने के लिए है। यह कुएं १५० हाथ गहरे हैं। गांव में कुल ५१ पक्के कुएं है ।

८. यह गांव जागीर का है जिनके भायप कंवला वाले हैं। जागीरदार सिंधल राठौड़ जवारसिंह हैं।

९. . लोगों की बोली सिरोही की है ।

१०. इस गांव की पट्टी जालोर और वाटी सिंधलावटी में है ।

११. यहा के जागीरदार को रेख हाब के ₹ कचहरी जोधपुर में हैं ।

१२. सिक्का रूपया विजेशाही का हैं, और तोल पैसा सैर का है।

कवलां (परगना जालोर)

१. गांव में कुल घरों की बस्ती ३३२ हैं, जिसमें कृषको के घर १६० और महाजन के ९ घर है, बाकी घर १६३ है ।

२. गांव के लोगों का धर्म शिव और ईष्ट माताजी का है। ३. गांव में एक मन्दिर ठाकुरजी श्री सांवलाज जी का है, जो वि.सं. १९१४ में गांव वालों ने आपसी चन्दा इकट्ठा कर बनाया था ।

४. इस गांव की धानमण्डी पाली हैं, जो १२ कोस की दूरी पर है।

५. गांव काफी पुराना बसा हुआ हैं, यहां की बस्ती वि.सं. १९०५ और १९२५ में टूटी थी ।

६. गांव का नाम कवले चौधरी के नाम से बसा हुआ है, जिससे इस का नाम कवलां पड़ा | इस गांव का जूनाखेड़ा गांव की सीमा के पास स्थित है | यह गांव आथुनी दिशा में हैं ।

७. गांव में ७५ कुएं है, जिसमें १६ कुएं पक्के और ५९ कुएं कच्चे हैं।

८. यह गांव जागीरी का हैं, जिनमें दो जागीरदार क्रमशः रावतसिंह, चिमनसिंह के पट्टे में हैं । यह सिंधल राठौड़ हैं।

९. यहां के लोग गोडवाड़ से मिलती जुलती भाषा बोलते हैं।

१०. हुकुमत लाग के ₹६१ भरते हैं ।

नारवणा (परगना जालोर)

१. गांव में १३ घरों की बस्ती है ।

२. गांव में लोगों का धर्म विष्णु और ईष्ट माताजी का है ।

३. गांव की धानमण्डी पाली है, जो गांव से साढ़े १२ कोस पर स्थित है

४. नारनाजी ने यह गांव बसाया था, इससे गांव का नाम नारवणा उजागर हुआ ।

५. गांव में कुल ९ कुएं है ।

६. गांव के जागीरदार लालसिंह सिंधल राठौड़ हैं, और भायपा ठा. कवराड़े का हैं । यह गांव जागीरी का है ।

७. इस गांव की पट्टी जालोर एवं लाटी सिंधलावटी में है ।

८. मारवाड़ी बोली बोलते हैं।

९. यहा के जागीरदार रेख के ₹३२ विजेशाही ते भरते हैं । खड़साकड़ के

१६₹, सवा रूपये कानूगे के, घर बाब के ६ ₹, भीलोड़ हुकुमत में २३) भरते हैं ।

नारणावास (परगना जालोर)

१. नारणावास गांव की बस्ती ६० घरो की है जहां पर केबारी कृषको के घर ५९ है | यहा पर महाजनो का कोई घर नहीं है ।

२. इस गांव में विष्णु धर्म को मानने वाले लोग है, जिनका ईष्ट जगनाथ का है। ३. यहां के लोग ज्यादातर कपड़ा, काठ देशी रेजे का, बगलबंदी, धोती और पोतियां बांधते है ।

४. यहा के लोग अन्न में बाजरी का भोग करते है ।

५. इस गांव में एक मन्दिर जगन्नाथ का है, जो पहाड़ी पर बना है । उस मन्दिर का निर्माण ठा. संग्रामसिंह के समय हुआ था ।

६. अकाल की स्थिति में इस गांव के लोग गुजरात जाते है ।

७. यहा की धान मण्डी जालोर में लगती है। ८. यहां पर कोई लड़ाई झगड़ा नही हुआ है, और न ही यहां पर कोई पुलिस थाना है ।

९. यह गांव वि.स. १७११ में कानाजी को पोकरण की लड़ाई में वीरता

देने के के उपलक्ष में ईनायत किया गया था। आगे चलकर इनके वंशजो ने इस गांव को आबाद किया ।

१०. गांव में पानी का माध्यम १ नाडी रही थी जिसमें ४ महीने पानी का उपयोग यहा के लोग करते थे । अनन्तर कुएं २ मीठे पानी के जिसमें ८ महीनें पानी रहा करता था। यहां कोई नदी नही हैं जबकि बरसाती नाला १ है, जिसका नाम "सलड़े रो बालों है ।

११. यह गांव सासण, ताजीमी ठिकाणा नहीं है । इस गांव के जागीदार फतेंहसिंह है । जिसकी फली कानदासोत हैं, और वें जाति के सिन्धल राठौड़ है |

१२. यहां के लोग जालोरी भाषा बोलते है ।

१३. इस गांव की पट्टी जालोर और वाटी तलसर है । कोई ढाणी नहीं है ।

History of Malwara Jalore मालवाड़ा जालौर का इतिहास जाने कैसे बसा यहाँ गाँव

 History of Malwara Jalore मालवाड़ा राजस्थान के जालोर जिले की रानीवाड़ा तहसील में स्थित एक बड़ा शहर है। मालवाड़ा को सभी देवल परिवार में प्रतिष्ठित (ताज़िमी) ठिकाना के रूप में जाना जाता है, जो मारवाड़ (जोधपुर) राज्य में प्रमुख ठाकुर के 12 गांवों के भूमि स्वामी (जागीरदार) के हैं। ठिकाना मालवाड़ा को मारवाड़ (जोधपुर) राज्य द्वारा मालवाड़ा परिवार को हिंदी भाषा में ताज़ीमी (सोनावेसी) से सम्मानित किया गया था। उस समय विक्रम संवत 1958 महा (माघ महिना) सुद 13 (तेरस) परम पूज्य महाराजा श्री जसवन्तसिंहजी द्वारा। ताज़ीमी ठिकाना उपाधि ठाकुर श्री फतेह सिंह जी और छोटे भाई श्री जोधराज सिंह जी के काल में मारवाड़ राज्य द्वारा प्रदान की गई थी।

History-of-Malwara-Jalore मालवाड़ा जागीर पहले शासक ठाकुर श्री भाग सिंह जी को दी गई थी, वह ठिकाना पुराण के ठाकुर श्री धारो जी के चौथे पुत्र थे। ठाकुर श्री धारो जी राणा मोना जी लोहियाणा गढ़ के छोटे भाई थे। ठाकुर श्री बाघ सिंह जी की 7वीं पीढ़ी ठाकुर श्री चतर सिंह जी थे, उनके 2 पुत्र और 1 पुत्री थी। बड़े भाई ठाकुर श्री फतह सिंह जी और छोटे भाई श्री जोधराज सिंह जी और बहन मूल बाईसा की शादी साहेब श्री भीम सिंह जी ठिकाना निंबज जिला में हुई। सिरोही. ठाकुर फतेह सिंह जी के 5 पुत्र थे। ठाकुर भोजराज सिंह जी, श्री सलाम सिंह जी, श्री सुमेर सिंह जी, श्री राजू सिंह जी और हुकम सिंह जी। छोटे भाई जोधराज सिंह जी के 2 पुत्र श्री मूल सिंह जी, श्री गुमान सिंह जी और 1 पुत्री पूरन बाईसा का विवाह गुजरात के वाव राज्य (नाडोला चौहान) में हुआ। ठाकुर श्री फतेह सिंह जी देवलावाटी क्षेत्र में सबसे मजबूत ठाकुर थे। मारवाड़ राज्य ने ठाकुर फतेह सिंह जी मालवाड़ा को ताजीमी दे दी। ठाकुर फतेह सिंह जी के बाद 5वीं पीढ़ी ठाकुर श्री दुर्जन सिंह जी (दुर्जन कुल रो दिवो) मालवाड़ा थे। वह राज्य सरकार के विधायक थे। राजस्थान के, रानीवाड़ा के प्रधान और सुंधा माता ट्रस्ट के संस्थापक अध्यक्ष। उन्होंने दो बार शादी की, पहली चंपावत कबीले के बंटा रघुनाथ गढ़ में और दूसरी सोलंकी कबीले के सेवाड़ा में। उनके 2 बेटे ठाकुर श्री अमर सिंह जी और छोटे भाई श्री हरि सिंह जी थे और बेटी भामर बाईसा का विवाह ठाकुर श्री मंगल सिंह जी ठिकाना बांकड़िया बड़गांव के छोटे भाई श्री दीप सिंह जी के साथ हुआ था। उन्होंने दो बार शादी की, पहली चंपावत कबीले के बंटा रघुनाथ गढ़ में और दूसरी सोलंकी कबीले के सेवाड़ा में। उनके 2 बेटे ठाकुर श्री अमर सिंह जी और छोटे भाई श्री हरि सिंह जी थे और बेटी भामर बाईसा का विवाह ठाकुर श्री मंगल सिंह जी ठिकाना बांकड़िया बड़गांव के छोटे भाई श्री दीप सिंह जी के साथ हुआ था। उन्होंने दो बार शादी की, पहली चंपावत कबीले के बंटा रघुनाथ गढ़ में और दूसरी सोलंकी कबीले के सेवाड़ा में। उनके 2 बेटे ठाकुर श्री अमर सिंह जी और छोटे भाई श्री हरि सिंह जी थे और बेटी भामर बाईसा का विवाह ठाकुर श्री मंगल सिंह जी ठिकाना बांकड़िया बड़गांव के छोटे भाई श्री दीप सिंह जी के साथ हुआ था।

श्री लक्ष्मण सिंह जी मालवाड़ा श्री जोधराज सिंह जी के पोते (ठाकुर श्री फतेह सिंह जी के छोटे भाई)। श्री लक्ष्मण सिंह जी ठाकुर श्री दुर्जन सिंह जी के काल में 30 वर्षों तक ठिकाना मालवाड़ा के प्रतिनिधि थे, वे राजस्थान में भूस्वामी आंदोलन के सदस्य थे और ठिकाना मालवाड़ा का प्रतिनिधित्व करते थे। उन्होंने राजस्थान में जागीरदारी उन्मूलन अधिनियम के खिलाफ लड़ाई लड़ी। वह ठिकाना मालवाड़ा की ओर से जिगीरदारी सेटलमेंट बोर्ड राजस्थान के सदस्य थे। श्री मारवाड़ राजपूत महासभा जोधपुर, जिसे अब मारवाड़ राजपूत सभा के नाम से जाना जाता है, के सदस्य भी थे।

वर्तमान ठाकुर श्री अमर सिंह जी का विवाह गुजरात के वलाश्ना राज्य में हुआ। ठिकाना मालवाड़ा परिवार का निंबज, वाव राज्य (गुजरात), बड़गांव, भाटाणा, सुरचंद, देवदार राज्य (गुजरात), बिरलोका, वलासना राज्य (गुजरात), बंटा रघुनाथ गढ़, गुड़ा मालानी, जसोल जैसे प्रतिष्ठित ठिकानों से सीधे संबंध हैं। .

बाघावत परिवार गांव

ठाकुर श्री महेंद्र सिंह जी (एलएलएम) (कागमाला)

ठाकुर श्री समुन्दर सिंह जी (लाखावास)

ठाकुर श्री नारायण सिंह जी (चटवाड़ा)

ठाकुर श्री हरि सिंह जी (जोमजी कोटड़ी परिवार)- (करडा)

ठाकुर श्री छैल सिंह जी (सानीवाली कोटड़ी परिवार) – (करडा)

ठाकुर श्री वाघ सिंह जी (परिवार मालवाड़ा कोटडी)- (करडा)

ठाकुर श्री मान सिंह जी - (मेडा)

देवल वंश मूल रूप से लोहियाना राजवंश (जसवंतपुरा) के लोहियाना गढ़ से है। लोहियाणा गढ़ को देवलो का गढ़ कहा जाता है। लोहिया वंश के राजा राणा श्री राजोधर जी के समय मेवाड़ राज्य के महाराणा प्रताप द्वारा लोहिया परिवार को राणा की उपाधि दी गई थी। लोहिया राजवंश के पास सेना और किला दोनों थे। एक बार महाराणा प्रताप ने लोहियाणा में शरण ली थी इसलिए लोहियाणा राजा को राणा कहा जाता था। उन्होंने बादशाह अकबर के खिलाफ लड़ने के लिए सेना का समर्थन दिया।

राणा सालम सिंह जी के काल में देवल लोहियाणा के राजा का मारवाड़ राज्य के साथ कुछ राजनीतिक विवाद था। कुछ परिस्थितियों में राजा जसवन्त सिंह जी मारवाड़ ने 1883 ई. में लोहियाणा पर हमला किया और किले को नष्ट करके इसका बदला लिया और शहर का नाम भी लोहियाणा से बदलकर जसवन्तपुरा कर दिया।

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